STORYMIRROR

Sudhir Srivastava

Abstract

4  

Sudhir Srivastava

Abstract

कैलेण्डर

कैलेण्डर

1 min
350

जब हर ओर आधुनिकता का

असर बढ़ रहा है,

तब भला दीवारों पर टंगा

मैं और मेरी बिसात ही क्या है।


एक समय वो भी था जब

दिसंबर महीने से ही मेरी

डिमांड बढ़ जाया करती थी,

हर घर ही नहीं घर के हर कमरे

बरामदे तक में मेरी उपस्थिति की

बड़ी अहमियत थी।


नये साल में भी मुझ बेकार की

इतनी उपेक्षा न थी,

दो चार छः सालों तक मैं

वहीं जमा रहता था,

अपने नये भाई के साथ

नीचे ही सही पड़ा ही रहता था।


बहुत बार पुराना होकर भी

मैं बड़े काम आता था,

जाने कितने हिसाब किताब

शादी, ब्याह, दूध, अखबार का

मैं हिसाब रखता था,

तारीख बताने के अलावा भी

मैं पड़े काम आता था।


मगर ये मुआ मोबाइल जबसे आया

मेरा अस्तित्व खतरे में आ गया,

मुझसे लोगों का मोह भंग हो गया।

नयी पीढ़ी को मैं रास नहीं आता

दीवारों पर मेरे टँगने भर से


उनका स्टैंडर्ड खतरे में आ जाता,

क्या क्या बताता रहूँ आज मैं सबसे

अब तो लगता है जल्द ही

मेरा अस्तित्व मिटने की कगार पर है,

बस किताब के पन्नों में ही मेरा

सुरक्षित होने वाला नाम है,


आप भी एक बार फिर से जान लो

कैलेण्डर ही मेरा नाम है।


ഈ കണ്ടെൻറ്റിനെ റേറ്റ് ചെയ്യുക
ലോഗിൻ

Similar hindi poem from Abstract