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Vandana Singh

Abstract

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Vandana Singh

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मैं हूं नीर सा, बस बह चला...

मैं हूं नीर सा, बस बह चला...

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मैं हूं नीर सा, बस बह चला...

किस गति से,किस दिशा को,किस मंजर की तलाश में..

कभी इस घाट कभी उस घाट.. कभी पर्वत कभी वीरान।

बस बह चला.. वेदनाएं बटोरे, खुशियां बांटे बहता ही रहा।

रूकना मेरी फितरत नहीं,ना ही फुर्सत है मुझे।

मुझे बनाया ही गया बस बहने को, निरंतर, चिर काल तक।

मैं अश्रु बहा नहीं सकता,खारे पानी की इजाज़त नहीं है मुझे,

ना ही मेरी शख्शियत है, मैं हूं नीर सा बस बह चला।


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