दुविधा में हूं
दुविधा में हूं
दुविधा में हूं और भीतर ही भीतर खल रही हूं
हां अब मेरे हाथों में मेहँदी रचती नहीं
और रंग बिरंगी साड़ियाँ भी जंचती नहीं
तो भी चुपके से नज़रों का गुलाल चेहरे पर मल रही हूं
दुविधा में हूं और भीतर ही भीतर खल रही हूं
राह चलते लोग घूरते है तिरस्कार से
जैसे ग्रसित हूं छुआ छूत के विकार से
इंसान हूं तो थोड़ा दुःख की अग्नि में जल रही हूं
दुविधा में हूं और भीतर ही भीतर खल रही हूं
तस्वीरों से जाने क्यूं कतराने लगी हूं
आईने बगैर शख़्सियत संवारने लगी हूं
तो क्या मैं भी किसी खौफ के साये में पल रही हूं
दुविधा में हूं और भीतर ही भीतर खल रही हूं
भीड़ देख कोने में छिप जाने को मन करता है
कोई ढूंढ ना पाए ऐसे विलुप्त हो जाने को मन करता है
तो क्या ये मैं भी तपिश से कतरा कतरा गल रही हूं
सच कहूं तो दुविधा में हूं और भीतर ही भीतर खल रही हूं।