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Vandana Singh

Drama

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Vandana Singh

Drama

मैं और मेरी मनोदशा...

मैं और मेरी मनोदशा...

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मैं और मेरी मनोदशा...

किन किन परिस्थितियों में भी

उठकर चल देने की जो क्षमता है

उसे कब तक चेतना बचाए रखती है

देखते है जिस पुरजोर से खूंटी पर

टांगकर अवसाद, मौज के लुत्फ उठा रहे हैं


वो हमारी जीवन रूपी नाव को

कब तक धकेलकर लहरों में

फसाएं रखती हैं

अमरता का वरदान किसे चाहिए

कभी कभी जीने में भी

बहुत हिम्मत चाहिए, पर यूं

किनारे पर बैठकर दूसरो को डूबते देखने में

कहां आनंद है


निःसंदेह अब वो वक्त नहीं रहा

वो लोग,वो मंजर,वो बातें नहीं रही

लड़कपन से कोसो दूर

गोधूली में फंस गए है यूं

कि है ये तो आभास होता है


पर क्यूं का जवाब नहीं मिलता

कई सूरज रोज शाम ढले

अनंत को विलीन हो जाते है

उन्हें ताकते रहने में असहजता महसूस होती है अब

सन्नाटे डँसते है और चुपी चीर जाती है 


बच्चों के धुले-पोछे चेहरे, चहकते-खिलखिलाते

अचानक ही शांत पड़ गए

जैसे तूफान का इन्हें भी आभास हो चला हो

डर के साय में जीते, हर रोज अनायासता को निहारते

बस अब उठना खाना और फिर सो जाना

ही जैसे एकमात्र विकल्प बचा हो


मैं दूर से ये सब देखती, हिम्मत जुटाती, फिर हार जाती

आखिर कहूं भी तो क्या और कैसे

अपने मन की उथल पुथल को मुस्कुराहटों से

छिपाती, शून्यता का लिबास ओढ़े

अभी बस सोच हो रही थी खड़ी


कि दूर मंझधार से बच निकला एक साथी

जीवन गीत गुनगुनाता, मुस्कुराता समीप आ खड़ा हुआ

और उस अनुभूति से मेरी गिरती धूमिल होती

मनोदशा को नई दिशा मिल गई।


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