पिंजरा
पिंजरा
पिछले कई सालों से सफ़र में हूं
कई सालों से कितने ही प्रयास जारी है
कभी कभी लगता है कि सही दिशा में हूं
तो कभी लगता है कि यहां तो अजनबी हूं
ठिकाना किसे कहते है, नहीं जानती
जहां रहती हूं वो या जहां जाना चाहती हूं वो
दिनचर्या की बातें करूँ तो
पता नहीं क्या, कैसे गुजर जाता है
किस गहरे समुंदर में डूबा रहता है मन
किस हलचल से घबरा जाता है
किसी ओर अंधेरा दिखता है
तो यहां की खिड़कियां बंद कर लेती हूं
बाहर की अंधियारी से डर लगता है या
भीतर के सन्नाटे को उजागर नहीं करना चाहती
मैं और मेरी मौनावस्था शायद आदी हो चुके है
एक दूसरे के संगी बन दूर निकल चुके है
जिंदगी का पर्याय समझने की शायद हिम्मत ना बची हो
और खुद को आईने में निहारने का
ढांढस ना बांध पा रही हूं
वो छवि तिरस्कार की शायद पहले ही लोगों की
नजरों में झलक जाती है
भाग खड़ी होती हूं
दूर किसी कोने में अपना ही चेहरा कुरेदती
सामान्य दिखने की लाख कोशिशें विफल
जैसे लोगों की नजरें भीतर तक छलनी करती हो
और हर बात पर यूं लगता है
जैसे मेरी ही बातें हो
दुख का लिबास ओढ़े अवसाद जाने कब
भीतर तक घर कर गया
कि अब यूं लगता है कि
पिंजरा ही मेरा जीवन है
या मेरा जीवन ही पिंजरा है।