कुछ हूं थोड़ा कुछ बिखर गया....
कुछ हूं थोड़ा कुछ बिखर गया....
कुछ हूं थोड़ा
कुछ बिखर गया
तूफ़ान देखे इतने
कि सिहर गया
एक हाथ को
दूसरे हाथ से
कसकर पकड़ा था
किसी अपने की वेदना से
और अपनी चेतना से
मन भीतर तक जकड़ा था
पर हुआ क्या अब ऐसा
कि मन बिछड़ गया।
कुछ हूं थोड़ा
कुछ बिखर गया
कुछ देर रात तक
अभी कल तक
जागा करता था
करवटों में रात कटता
शायद खुद से ही
भागा करता था
फ़िर हुआ क्या ऐसा कि
सबकुछ बिसर गया
कुछ हूं थोड़ा
कुछ बिखर गया।
उम्र का ठहराव
मन में सुकून लाता नहीं
बस छटपटाता ही रहता है
लोग आते है,लोग जाते है
कही कुछ आराम मिलता नहीं
बस सन्नाटा ही रहता है
फ़िर हुआ क्या ऐसा कि
वो भी अब बिफर गया
कुछ हूं थोड़ा
कुछ बिखर गया।
