कैसी हो?
कैसी हो?
आज ऐसे ही
जल्दबाज़ी में
घर के काम से
बाजार निकली,
मेरी दोस्त मिली,
बस पूछ बैठी,
"कैसी हो,
क्या हाल है तेरा ?"
"मैं और मेरा हाल ?"
मैं सोंच में पड़ गयी,
"कैसी हूँ मैं,
क्या हाल है मेरा ?"
कोई पल
याद न आया
जिस पल खुद से
पूछा हो
"कैसी हो,
क्या हाल है तेरा ?"
अचानक न जाने
कौन दिल में
दस्तक दे गया
एक अलग ही एहसास,
एक अलग ही अनुभव !
मैं ! मैं एक,
और, मेरे पहलू दो
एक सिक्के की तरह
चित भी मेरा और
पट भी मेरा
एक पहलू "मेरा अन्दर"
जो मेरा है
बहुत गहरा है
मुझे करीब से जनता है,
पहचानता है,
सदा गहरे
चिन्तन में रहता है
"मेरा अंदर" यह पहलू
कितना छुपा हुआ है,
सभ्य भी, संवेदनशील भी
भावों को न जाने
कैसे छुपाता है;
कितना आश्चर्य !
भीतर की झलक
बाहर नहीं !
दूसरा पहलू "मेरा बाहर"
हंसती, खिलखिलाती
चलती फिरती काया
परिस्थितियों के विपरीत,
जो दिखाती हूँ
वही औरों को दिखता है,
पहचान मेरी
चिन्ह कर देता है।
खयालों में डूबकर
उत्तर के लिये
शब्दवाली में, मैं बह गई,
मन मस्तिष्क
एक नाव पर सवार
समंदर में गोते खाने लगा,
और एक सवाल उभरा,
क्यों न मैं भी पूछों उससे
कि "कैसी हो ,
क्या हाल है तेरा ?"
तभी महसूस हुआ
तब एक नही, तब
होंगे दो प्राणी
विचारों की उथल पुथल में
मन के समंदर की नाव में
हिचकोले खाते,
और होगा वही शून्य
और वही सन्नाटा !
अब पूछ रही हूँ
आप लोगों से कि
"कैसे हो, क्या हाल है ?"
जवाब देना ज़रूर
कि कितने सांझ
कितने सवेरे गुज़र गए,
कोई शब्द बचा क्या
शब्दावली में ? जवाब मिला क्या ?
ज़रा मुझे भी बता देना........
