जंगल-जंगल हुआ शहर
जंगल-जंगल हुआ शहर
धुआँ - धुआँ अवसन्न दिशाऐं, काजल-काजल हुआ शहर।
सिरहाने इतिहास दबाकर, ओझल - ओझल हुआ शहर।
थका - थका सूरज मुंडेर पर, गुमसुम - गुमसुम किरण लिए,
ऑगन - ऑगन धूप सिसकती, बादल-बादल हुआ शहर।
भूख - प्यास के कम्बल में , सोए बर्फीली रात लिए,
जागे तो दिन लगा अपरिचित, दंगल - दंगल हुआ शहर।
दहशत की रेतों पर ,अपनी परछाईं से डरा - डरा,
सन्नाटे की चादर ओढे, जंगल - जंगल हुआ शहर
जबसे उपवन के माली को, डसा फूल ने चुपके से
हिंसा के बबूल उग आए, घायल - घायल हुआ शहर।
जातिवाद की बन्दूकों में, नफरत की बारूद भरे,
सत्तालोलुप गिद्ध नाचते, चम्बल - चम्बल हुआ शहर।
शायद मन के बाज आ गए, उड़े कबूतर नीड़ों से
मानवता की लाश नोचता, पागल - पागल हुआ शहर।
धू - धू कर जलती बस्ती के, अधर नही चेहरे बोले,
मौसम की पथराई ऑखें, निर्जल-निर्जल हुआ शहर।
घूस - दलाली - लूट - अपहरण के पगलाए पशु देखो,
चरे जा रहे पावन संस्कृति, निर्बल - निर्बल हुआ शहर।