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Uma Shankar Shukla

Tragedy

4.5  

Uma Shankar Shukla

Tragedy

गज़ल

गज़ल

1 min
612


जबसे रंग चढ़े नफ़रत के मज़हब की दीवालों में।

कातिल मठाधीश बन बैठे मस्जिद और शिवालों में।।

बस्ती-बस्ती लूटपाट दंगों हत्याओं की दहशत,

साजिश के विष पनप रहे हैं घर के ही रखवालों में।


अन्धकार की जंजीरें अब काटे कौन गरीबों की,

शाही महलों के कारिन्दे अन्धे हुए उजालो में।

बड़ी मछलियाँ निगल रहीं छोटी कमजोर मछलियों को,

शायद मत्स्य-न्याय के मछुआरे चिपके शैवालों में।


मुल्जिम के घर गयी रिहाई बाइज्ज़त हो गया बरी,

सजा मुद्दई भुगत रहे हैं उम्र कैद की तालों में। 

कर में छेनी और हथकड़ी आँखों में फुटपाथ लिए, 

चीनी-सी घुल रही जिन्दगी भूख प्यास के प्यालों में।


वही बेबसी दर्द वही है हरे जख्म में टीस वही,

जब-जब सजल आँख से देखा जनता की चौपालों में।

धरती माँ के भीगे-भीगे आँचल में आलोक गज़ल,

अता करेंगी नयी धड़कनें हृदय-हीन बैतालों में।


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