सिलसिला
सिलसिला
2122 2122 2122 2122
ज़िन्दगी की धुंध में एक अक्स धुँधला सा है दिखता,
है मुझे तशवीश आख़िर शख़्स वो कैसा है दिखता।
हूँ मैं उलझन में अकेली कैसे सुलझाऊँ इसे अब
वो कभी लगता है अपना कभी वो अनजाना है दिखता।
तिश्नगी में पी गया वो अश्क़-ए-चश्म पानी समझकर
पीने के बाद होता ये महसूस वो प्यासा है दिखता।
टुकड़े टुकड़े एक एक करके इसे कोई समेटता
लगता है यूँ उसका आईना-ए-दिल बिखरा है दिखता।
अनकहे जज़्बात से जुड़ उससे रही हूँ इस क़दर मैं
'ज़ोया' तुझसे उसका पिछले जन्म का सिलसिला है दिखता।
24th September 2021 / Poem 39