रुक्मिणी के कृष्ण कुंवर
रुक्मिणी के कृष्ण कुंवर
पूछे वैदर्भी से सखी,
कैसे वारे कुंवर ।।
वधू लक्ष्मी स्वरूपा,
क्या मेल का कुंवर ।।
कदम भी लाडली ने मोरी ,
फूलों में सजाया ।।
ग्वालों गोपियों में घूमते थे वारे कुंवर,
जन्मे भी तो कोठरी में कुंवर,
क्या होगा मेल बराबर
पिया जी का घर ।।
वधू लक्ष्मी स्वरूपा,
क्या मेल कुंवर।।
बोली मुस्काती किशोरी,
मोसे ऊंचे कुंवर ।।
जो मैं लक्ष्मी स्वरूपा ।।
क्योंकि नारायण कुंवर ।।
क्या जो माया लोक में संपाती
न सुशोभित हुई,
तीनों लोकों के मालिक
हैं मोरे कुंवर ।।
स्वयं वैंकुठ है मोर पिया जी का घर ।।
भक्त से प्रेम बड़ा करते है मोरे कुंवर
पिया ही मोर त्रेता के रघुवर ।।
कभी राम कभी घनश्याम है मोरे कुंवर ।।
ब्रज भूमि तो पिया की मोरे लीला का स्थल था,
सीखना जो सबको पाठ अमर था
प्रेम से ही खींचे आते है मेरे कुंवर ।
जो मैं लक्ष्मी स्वरूपा,
क्योंकि नारायण कुंवर ।।
सखी दूजी ने कहा ,
कैसा पिया जी का बल ।।
न तलवार प्रिया शस्त्र,
न कुछ दूजा किया धारक ।।
भीष्मक दुलारी ने फिर मुस्क्याय,
बोली नन्हे से मुख में पियाजी ने
भ्रमण दिखाया ,
कभी बालपन से छोटी उंगली में ने गोवर्धन उठाया ,
बांके लल्ला ने ही पूतना मार गिराया ।।
कालिया नाग से मुक्त जमना जी को कराया ।।
ऐसा विस्म्याई मोरे पियाज़ी का बल,
क्या शस्त्र की आवश्यकता
कर में सुदर्शन जो धारक ।।
शंका एक सखी के मन उत्पन्न
हुई,
मेरी किशोरी तो देखन
में माधवी(लक्ष्मी जी) सी भई ।।
तारे लज्जित जो नैना किशोरी है,
मुस्काहट के आगे चांद भी विफल ।।
स्वर्ण सी कांता लाडली की है ,
चमक में दुनिया भी वारी वारी है।।
और रात से श्याम वर्ण के हैं बांके कुंवर,
क्या जोड़ी रचेगी ऐसी सुगढ़,
क्या रमा के साथ जाचेंगे कुंवर ।।
इस बार रुचिरनना ( रुक्मिणी)
थोड़ी लाजित सी थी
गालों में लाली लिए कहे शब्द वो सही ।।
बोली कुंवर तो मोरे मदन मोहन,
देवों का कोटि कोटि श्याम वर्ण को नमन ।।
नयनों तो पिया जी के क्षीर सागर से है,
सुंदरता स्वरूप का संचार ' कृष्ण ' अक्षर से है ।।
श्याम वर्ण में पीले वस्त्र सूरज से लगते,
कृष्ण केशों से तो घन भी जलते ।।
माटी मुख में लगे फिर भी,
पिया मोरे भुवन सुंदर ।।
अगला प्रश्न सखी का कैसा पिया जी का
घराना ,
पली मेरी लाडोबाई प्रेम के तले है ।।
भीष्म के कुल की है शोभा बड़ी है,,
क्या जान पाएंगे कुंवर रिश्ता कैसे है निभाना ।।
पिया जी का तो पूरा विश्व ही कुटुंभ है,
अवतार में सहयाता करने आए स्वयं देव गण हैं ।।
यशोदा - नंद तो धारा - वासु द्रोण स्वरूप
देवकी - वासुदेव हैं अदिति - कश्यप का रूप ।।
साथ शेष नाग भ्राता बन अवतरित हुए ।।
योगमाया है भगिनी ,
देव हर्षित हुए ।।
ऐसा दिव्य मोरे पिया जी का घराना,
सखी जा के मोहे वापस न आना ।।
कला क्या पियाजी की ,
पूछी एक सखी,
नृत्यांगना तुम उत्तम,
वाद वादन में निपुण भी,
क्या कला में भी बराबर पियाजी ।।
मुरली मनोहर हैं बांके कुंवर,
मधुर ध्वनि से खिला है
बृज आंगन का कण कण ।।
जब प्रेम में रासेश्वर ने महा रास रचाया,
महादेव को गोपीश्वर बन बुलाया ।।
वेणु वादक की मुरली धुन सुन मनोहर,
थिरकते थे स्वयं ही गोपी ग्वालन के पद ।।
64 कलाओं से संपूर्ण नटवर,
लीला कला के पुरषोत्तम है मोरे कुंवर ।।
नटखट सखी ने कहा माना पिया तोरे
प्रेम के सरोवर,
क्या बचा प्रेम थोड़ा
या ब्रज में बाट दिए सब ।।
कुंवर तो मेरे प्रेम के हैं सरोवर,
न प्रेम पिया जी का क्षण भर को भी कम ,
बांट कर ही बढ़ाते है प्रेम कुंवर ।।
कहती एक सखी ,
बांट पाओगी पिया को ,
।।
देख सकोगी जो खींचे,
जाएं बृज रज को ।।
मुस्काती कही,
स्वीकार जो ने पिया की इकलौती रहूं,
न चाहा सिर्फ पिया मोरे होके रहें ।।
पिया के प्रेम के कई प्रतिभागी भी है ,
देव भी पद रज को आतुर से हैं।।
पर स्वीकार जो क्षण भर को मोहे देख लें,
कृष्ण भक्ति का बस सौभाग्य मिले।।
जो सखी सब में सयानी सी
थी,
बोली प्रेम का पथ है सरल नहीं ।।
त्यागना होगा किशोरी को बचपन का आंगन,
पीहर से भी विरह अब सहना होगा ही क्षण ।।
चुनना होगा प्रेम या पीहर अब एक ही विकल्प,
न जान लो यह होगा सरल ।।
सब से मैं सखी ,
आवागत भी हूं ।।
पर पिया को अब अपना मैं मान चुकी हूं,
निश्चय मैं अपना अब बांध चुकी हूं।।
ना कोई त्याग छोटा ,
जो पियाजी का साथ मिले ।।
मेहलाओं की न इच्छा रही,
कुंवर साथ रहे नभ के तले ।।
आशा अब सखियों न कोई ,
आशंका रही ।।
अब सखी तुम्हारी पिया घर चली ।
प्रेम रुक्मिणी का देख सब सखी ,
हर्षायीं ।।
लक्ष्मी नारायण का मानो दर्शन पाई ।।