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Malvika Dubey

Tragedy Classics Fantasy

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Malvika Dubey

Tragedy Classics Fantasy

कर्ण : सूर्य या सूत

कर्ण : सूर्य या सूत

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मेरी और नियति की

है अनोखी कहानी

कभी नियति ने की मानहानि

कभी मैंने मनमानी


सबका रिश्तों से मैं 

बट्टा किश्तों में रहा

त्याग अपनाय गया

प्रिया किसी का न रहा


धर्मराज के धर्मसंकट

से विचलित सभी का मन है

कर्ण तो माता के 

लिए भी ऋण है


त्याग दिया जो माता 

ने क्या ही मेरा दोष था

तुम्हारी मर्यादा बचाने के लिए

मेरा जीवन मोल था

फिर कहती हो मेरे मन में द्वेष था


क्यों दोष आता है कर्ण 

दुष्ट की संगति आया था

राधा अदिरथ और दुर्योधन के बिना

किसने मुझे अपनाया था


जब शस्त्र ज्ञान तुम्हे विरासत में मिला करते 

मेरे कर्म ने कौशल दिखाया था

मेरी अपूर्णता ने मुझे दानवीर बनाया था


गुरु द्रोण भी रहे दोषी

जो वो रण युद्ध रंग लाया था

छीना कभी राज्य द्रोण से

कभी एकलव्य का कौशल मांगा था

कहा मुझे मैं योग्य नहीं जो युद्ध

कौशल सीख 

द्वेष से परिपूर्ण तुम क्या योग्य

 जो तुम्हे गुरु कहूं


नारायण के अवतार 

 ने स्वीकार किया 

 प्रथम बार भाग्य मुस्काया था

फिर क्यों गुरु भक्ति की प्रस्तुति ने 

 मुझे झूटल्या था

 सहन करके दर्द भी क्यों

 श्राप ही भाग्य आया था


सूर्य का सुपुत्र मैं

कृति होनी मेरी महान थी

शनि सा आंका जग ने 

कर्म की नियति निधान थी


कवच कुंडल भी तब दिखे 

जब इंद्र को दान की आस थी

मांगा इंद्र ने दान जिससे

यह मेरी पहचान है


कौशल को किसी ने ठुकराया

किसी ने एक मुकुट मोल में आंका था

दुर्योधन की नीति देखो

क्षण भर क्षृणि बनाया था


जो सब्यसाची निपुण इतना 

क्यों मुझसे घबराया था

मछली की आंख पेड़ की पत्ते की बीच 

तो देख ली

कर्ण को सिर्फ सूत पुत्र ही देख पाया था


द्वेष द्रौपदी से भी मेरा 

जो स्वयंवर में ठुकराया था

एक वचन ने मेरा अभिमान 

ललककारा था

क्या बन गया जो उसके दुर्भाग्य पे मुस्काता हूं

ड्यूट सभा का वो दिन स्मरण कर्ण

खुद पर लज्जित हो पाता हूं


धर्मराज कैसा धर्म 

पत्नी को हार बैठे

प्रेम पर पांचाली के 

आपके यूं अधिककर कैसे


दोष मुझेपे चाहता तो पाखंड शकुनी का रोक लेता

बैठा हुआ अंगराज अब दुर्योधन के अधीन था

ग्लानि प्रथम जीवन की उस कलंकित दिन की स्मृति थी

कहां जो पांचाली को उस दिन मेरी आत्म मुझसे रूठ गई

कलंक लिया वस्त्रहरण के दिन

अब जीवन बिताना है


अपमानित कर उस सती को अब

मां को मुख दिखाना है

सदा पांचाली की चेतावनी कानो में 

गूंजगी

भ्रमित इंद्रिय से उस दिन की नियति न साथ 

कोनसा कुकर्म वो दिन लाया था

भाइयों के दुख पे हंस

नारी के चरित्र को ललकारा था

नीची जाती का कर्ण तो क्षण कहलाया था


उस दिन तुमसे प्रतिशोध ले सोचा

पांचाली मन को शांति मिल जाएगी

न सोचा था मेरी आत्म दूषित हो जायेगी

सहयता मांगी जो तुमने कैसे मैंने प्रस्ताव ठुकराया था

शायद इसी कारण नियति ने मुझे दुदकारा था

क्षमा का अधिकार में खो चुका

पर हो सके तो वो शब्द भुला देना

स्मृति से अपनी ड्यूटी सभा को मिटा देना


भार्या ने मुख मोड़ लिया जब 

निकली ड्यूट सभा की बात 

निर्णय उत्तम जो छोड़ दिया मेरा हाथ

क्षमा जो कहलाई तुम

ऐसे कर्ण की अर्धांगनी

पर ना मैं पूर्ण रूप से ऐसा 

तुम भी थीं ज्ञानी


युद्ध का आगाज़ सुन

फिर सब कर्ण के पास आएं

भाती भाती पुत्र प्राण बचाने

कितने माता पिता आएं है


माता कुंती आज 

भी पांडू पुत्र का जीवन मांगने आई हैं

कैसा मातृत्व तुम्हारा जो मेरी स्मृति

 भी न आई है

 तुम ना निभा पाएं क्षमा किया 

 पर मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगा

दान एक और वचनों के लिएं निभाऊंगा


एक बार हृदय से लगा कर

सर पे हाथ फेर दो

जीवः से कर्ण को अपना बोल दो

माना समाज से दब कर यह निर्णय लिया तुमने

फिर आज न लाज आई मागने में कर्ण से उसका धर्म तुम्हे


इंद्र देव भी देखें ना कर्ण

कवच कुंडल के बाध्य है

कौशल सदाव उसके 

हाथों में विराज है

माधव ने भी कहा न 

ऐसा क्षत्रिय दूसरा अय्येगा

और भला किसी इंद्र 

दान मांग पाएगा


गीता का ज्ञान पाया अर्जुन

द्वाझ में पवन पुत्र को सजाया था

मनुष्यों के युद्ध में

लीलाधर को बुलाया था

क्या खेल तुमने पृथा पुत्र युद्ध में रचाया था


माधव ने स्वीकार सत्य

कर्ण ने नर नारायण के रथ हो धक्या था

कौशल ने मेरे काल को भी डराया था

बस गलत संगति में कर्ण

यह तो तुमने भी मान था


छल से घिरा रहा 

वो रण धर्मक्षेत्र था

अभिमन्यु की बलि ली

धरती मां का आंचल धन्य था

बालक को देख दुष्ट

सब नियम भूल चुके थे

सिंह के ऊपर

कायर सारे कूद पड़े

न कर्ण न अर्जुन ना भीष्म युद्ध महान है


लथपथ सुभद्रा का लाल 

कुरुकुल की शान है

मैं भी दोषी जो अभिमन्यु हरा था

तात ने क्षण भर में पुत्र पा कर गवाया था

लेना था प्रतिशोध पर जो अर्जुन ने पुत्र को मारा था

अभिमन्यु सा वो भी निर्दोष बस पिता के साथ था

मेघनाथ सा बस पिता से रिश्तों में बाध्य यह


भीष्म को भी छल लिया

ना गुरु द्रोण बच पाए थे

माधव को ढाल बना अर्जुन

सबकुछ तो जीत लाए थे


क्षण निकट अब वो 

जब भाई सामने आएंगे

अनुज अब तुम मेरे 

चाहे न तुम्हे ज्ञात हो

जो साथ आता अब तुम्हारे 

ऐसा न प्रतिघात हो


ज्ञात तुम्हे स्वयं माधव ने 

धर्मराज के पद क प्रस्तव दिया था

पर जो छले अपने मित्र को न ऐसा मैं क्षत्रिय था

जिन्होंने न मुख मोड़ के कभी कर्ण को देखा था

युद्ध भूमि में स्वार्थ हेतु कर्ण को 

सबने अपना माना था

रिश्तों ने आके स्वयं मुझे ढूंढा था

भूल गए वो क्षण जब अकेला में कुढ़ता रहा


माता भूमि का श्राप आज रंग लाने को है

गुरु भी मेरे आज अपना वचन की हट पर हैं

नियति से न उम्मीद मेरा साथ देगी

विश्वास लेकिन तुमपे ना निहथे पे वार करोगे


लो हरा दिया कर्ण को

अब हर्षित हो जाओ अर्जुन

पर पा ही क्या लिया तुमने

इस युद्ध को जीत कर


युद्ध ने पिता भ्राता के हर रिश्ते

ठुकराएं है

क्या ऐसी विजय जो अपनो के रक्त से हैं लाल है


पर समरण रहे अर्जुन

मेरी पराजय स्वयं की है

और तुम्हारी विजय कृष्ण की

क्या जीत पाते बिना कृष्ण के मुझसे कभी

मेरी नियति भी तुम्हारे ही साथ थी

माता का प्रेम भी तुम्हारा था

जीता फिर भी कौशल से क्या सचमुच मैं अभागा था 


अंतिम क्षणों में आशा है 

पांचाली से क्षमा मिल 

अनुजो से स्वीकार 

माता का स्नेह मिले 

और भार्या का साथ


आइए माधव एक परीक्षा और लीजिए 

भ्रामण बन मेरे पुण्य भी मांग लीजिए

पर जो दिया आपने कर्ण को

वो उपहार अनमोल है

कहलाया जो यह कर्ण दानवीर 

कृष्ण की ही देन है


आशा है चिता को आग देने 

भ्राता सभ आयेंगे

माता कुंती के मुख से अब तो वचन बाहर आयेंगे


ग्लानि रहीं जीवन में 

द्वेष से भी घिरा रहा

अधर्म का साथ दिया 

पर गर्व है इस युद्ध में 

अकेले ही खड़ा रहा।


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