शिव ईशा
शिव ईशा
हे शिव,
अब सती नही रही,
अब दक्षायणी,
मैना की दुलारी बन गई है ।
और पर्वतों को राजकुमारी
कैलाश को रानी बने जा रही है ।।
अब अर्धांगिनी बन पार्वती आयेगी,
और शंकर में संसार पाएगी ।।
त्याग और तप अब भी रहेगा,
होगा समर्पण - प्रेम भी,
पर समर्पण अब मेरा सशक्त है ।।
अब अगर प्रेम में सती अग्नि में जायेगी,
तो काली बन विनाश भी लाएगी ।।
पार्वती बन कैलाश पे अगर,
संसार का सृजन करूंगी,
तो रक्तबीज शुम निशुंभ का संघर भी ।
सती ममतामई थी ,
माता न बन पाई ।।
पार्वती मातृत्व का नया,
अर्थ सिखाए गी ।
पर शंभू सिर्फ सती पार्वती नही,
अब शिव भी शंकर बनेंगे ।
दक्ष ने तो सती का हाथ,
भोलेनाथ भास्मधार को थमा दिया था ।
पर मां मैना न मानेगी ,
अपनी लाडली की पिया को
खूब अंकेंगी ।।
जो मैं बनी पार्वती,
अब तुम भी सोम सुंदर बन आना ।
भूत गण भले भी बरात में आएं,
पर भस्म विभूति त्याग आना ।।
यह तो मेरी अपेक्षाएं थी,
पर कर्तव्य अपने भी
समरण है मुझे,
विरह के शोक
और भूल का बोध मुझे ।।
वादा मेरा न अब अहंकार में
में स्वीकार धूंदूंगी,
इस बार मान जाऊंगी जो न अपनो की सहमति मिले ।
न हर बिछड़े रिश्तों को थामे रखूंगी ।।
अब एहसास सती को,
अपने आदि शक्ति तत्त्व का हो,
सिर्फ विवाह का नही,
आराध्य और शिष्य का भी रिश्ता हो।
जो तीसरा नेत्र तुम खोलो,
तो हाथ जोड़ मै मनाऊंगी ।।
जो काली बन मेरा क्रोध बड़े,
बटुक बन तुम भी पार्वती को
वास्तव का बोध दिलाना ।।
पर जैसा हम समझेंगे एक दूसरे के हर कृत को,
क्या समाज भी यूं ही मानेगा हमारे
मैतृत्व को,
जब मैं वैवाहिक जीवन के अधिकार मांगूंगी,
क्या संसार हठ ठेराएग ?
जब विष धारण करोगे कंठ में,
मुझे देखने का क्या साहस आयेगा ?
पर विश्वास है हमारे प्रेम में पूर्ण मुझे नटराज है,
आप प्रियतम ही नहीं,मेरे आराध्य हैं
दक्ष की प्रिया पुत्री रही
पर्वत राज की भी दुलारी
पर न पद कोई ऐसा
जो बनी शिव अर्धांगिनी ।।
सिर्फ प्रेम नही,
ज्ञान का भी ,
हमारे जीवन में भाग रहेगा ।
कभी मैं संसार समाज को रीतियों से अवगत करवाऊंगी,
कभी शंकर अमृत कथा का ज्ञान देना,
संस्कार के उधार को जो तुमपे बोझ हो ,
तो तुम्हारे संसार की मैं जिम्मेदार ।
और जो सती बनेगी त्रिपुरा शक्ति कृत के तुम हकदार ।
अब प्रारंभ है हमारे नए रिश्ते
का ,
संसार साक्षी हो ।
बस उम्मीद भले ही हो बढ़ाएं
न विरह के क्षण हों ।
पर उम्मीद है यह अनंत काल की,
कथा का आरंभ है ,
पूर्ण करनी अधूरी कहानी
विधि का विधान है।।
जो अब हमारा विवाह है
श्री हरी विष्णु का भ्राता सा नाम से जुड़ा है,
जब सखी लक्ष्मी बन अतिथि आयेंगी
कैसा न जीवन ने सौभाग्य की वर्षा आयेंगी ।।
और जब देवी सरस्वती की उपस्तिथि होगी,
स्वर संपूर्ण जीवन की कृति होगी ।।
जब देव गण पधारेंगे आंगन
हो गा ही सुशोभित अंजन ।।
वर्षों मेरे तप में बीते,
युग तुम्हारे विरह मैं,
क्या पूछेंगे जो अब मिलेंगे सामने ?
पुरानी स्मृति छवि बन आयेगी
या आने वाला कल की उम्मीद आंखें दिखलाए ही?
बारात भी भूत नाथ की सबसे अनोखी
जो शामिल सबको करेगी,
दैविकता के कदम से कदम
गणो की शोभा जाचेगी ।
न भव्य अश्व हाथी
भोले के अजूबे साथी
नन्दी के ईश्वर
के प्रियों की
तो हर जीव जंतु में आबादी ।
वर के रूप को भी,
संसार स्मरण करेगा ।
जो मान रखा समाज की आग्रह का
संसार के उत्सव में रहेगा ।।
वधू की भी शोभा ,
न शब्दों में बंद सके ,
पूर्ण चंद्र सूर्य सा
प्रेम का तेज दिखे ।।
सती का त्याग
ही यह क्षण लाया है
बलिदान हुआ पूर्ण मेरा
जो आज का अवसर आया है ।।
आओ नई शुरुआत हम साथ फिर भोलेनाथ करे,
भूलना न सती को लेकिन जो ईशा का प्रेम बन बसे, ।।
ज्ञात न मुझे क्या जो उस दिन सती
न यज्ञ में जाति,
तो तुम्हारी पीड़ा कम हो जाती ।।
पर हृदय कहता की शिव पार्वती की गाथा
सती की यात्रा के अंत से ही पूर्ण हो पाती।