परदेस की चमक
परदेस की चमक
एक ज़माना था
जब सुनने को
मिलता था कि
गांव में कोई
परदेसी आया है
संग अपने वो
मेवे, मिष्ठान और
कपड़े लाया है
परदेसी के आते ही
गांव भर में उथल-पुथल
मच जाती थी.......
हंसी- ठहाकों के साथ
महफ़िल बन जाती थी
आगंतुक बने परदेसी की
खूब आवभगत होती थी
मांस- मदिरा और पकवानों से
जमकर दावत होती थी
जाते वक़्त वो आदमी
देसी चीज़ें ले जाता था
और बांटता था मित्रों के साथ
गांव पर व्याख्यान सुनाता था
मशीनीकरण के वर्चस्व ने
जैसे पूरा ज़माना ही बदल दिया
ग्रामीण परिवेश को छोड़, मानो
सबको परदेसी बना दिया......
यहां ना अब समय बचा है
किसी देसी आदमी से मिलने का
यदि परिचित कोई स्वयं आ जाए
अवसर नहीं चूकता, निंदा करने का
गांव से आए हैं
तरीका नहीं आता
बोलना नहीं आता
पहनना नहीं आता
रहना नहीं आता
सहना नहीं आता
हंसना नहीं आता
समझ में नहीं आता
ना जाने कितने ही लोग
जो गांव की मिट्टी में
बड़े होकर परदेस में
दिन बिता रहे हैं
वही लोग आज ग्रामीण
भाई - बन्धु से मिलकर
उनको समाज के समक्ष
छोटा महसूस करा रहे हैं
परदेस की इस चकाचौंध ने
उनको हीरे-सा चमका दिया है
मगर इस फरेबी शान-ओ-शौकत ने
उन्हें उनकी जड़ों से अलग करवा दिया है।