ज़िन्दगी एक खेल
ज़िन्दगी एक खेल
ज़िन्दगी मानो एक खेल बन गई
सुबह से शाम तक रेल बन गई
सुख और दुःख की आपाधापी में
ज़िन्दगी तो जैसे जेल बन गई.....
जिसके पास धन नहीं
वो हर क्षण क्रंदन कर रहा
जिसके पास असीम धन
वो धन छुपाने में मनन कर रहा
जिसके पास अपार सुख
वो अहं की आग में जल रहा
जिसके पास अनेक दुःख
उसे दूसरों का सुख खल रहा
कोई ओछा बन कर घूम रहा
कोई ओझा बन कर घूम रहा
कोई दयालु खुद को बता रहा
कोई कृपालु खुद को समझ रहा
कोई सलाहकार बन रहा
कोई उपहासकार बन रहा
कोई गरीब की निंदा कर रहा
कोई अमीर परिंदा बन रहा
कोई अवसाद में जी रहा
कोई क्रोध को भीतर पी रहा
कोई नित चिंता में डूब रहा
कोई प्रभु भक्ति में झूम रहा
ज़िन्दगी की है ये भैया बड़ी अजब रेलम पेल
माया अपने वश में कर के खेलती गजब खेल
हितकारी हैं बहुत कम दिखते ज़रा ज्यादा हैं
जीवन में देखो तो स्वार्थ ने कैसा अजब निशाना साधा है।
