वो दिन जो बचपन कहलाते थे
वो दिन जो बचपन कहलाते थे
वो दिन थे जो बचपन कहलाते थे,
अपने पराए का भेद न जानते थे
दुनिया को मानो घर का आंगन मानते थे
और हर मुश्किल को जैसे खेल सा जानते थे
आजकल धूप से बचने छुपने चिड़ने का जमाना है
उन दिनों हम कहां धूप से बचना जानते थे
जले कितने चाहे पाऊं धूप में
तब भी छत पर आंवले चखने जरूर जाते थे
धूल मिट्टी से गहरी दोस्ती थी
और अठन्नी चवन्नी में करोड़ों की खुशी मिलती थी
कुल्फी वाले के आने पे मां भी अपने खजाने का हिस्सा निकलती थी
और अपनो के साथ गर्मी भी सह ली जाती थी
क्या न था हमारे पास यह बात भुला दी जाती थी
तब रंगीले प्याय सिर्फ शादियों में नसीब होते थे
तारो की शैया में मैया के साथ सपने सुहाने होते थे
कहां तब बारिश में भीगने का भय था
कागज़ की नाव पर हमारी आशाओं का आश्रय था
तब मां ही वैद्य और पिता औषधज्ञ थे
थोड़ी डांट और लाड प्यार से हर रोग ठीक कर देते थे
तब पड़ोसियों से जुड़े रहते थे आंगन
और दिल से रिश्ता था परिवार का
मुहल्ले के हर सदस्य का हक था प्यार और डपट का
तब हर प्रश्न के उत्तर चुटिकयों में न मिलते थे इसलिए दिल में बसते थे
पुस्तकालय में समय के सुध बुध गंवा बैठते थे
मैदनाओं से खींच कान हमें लाना पड़ता था
और हर कोई ही अपना था
सर्दियों में आलसा आज जितना ही आता था
और कम्बल भी उतना ही भाता था
हम अनजान थे
मेवे तब मां गहनों जैसे संभालती थी
खुद को भूल सब में बांटी थी
हमारे लिए नए स्वेटर हमेशा ही आ जाते थे
चाहे पापा उसी पुराने स्वेटर को वर्षों से चलते थे
तब अपने खर्च से मूंगफली लिए हम भी खुद पर हर्षाते थे
और दादी नानी के सिले टोपे उनके हाथ सा सर सहलाते थे
सोचती हूं जब लौटते हुए दादा नाना हाथ में रूपय पकड़ा ते थे
हमारी छोटी सी चाहतों की सूची कैसे जान जाते थे
सुना है पापा कहते हैं काश बचपन लौट आए और
दोबारा वो ज़माना पुराना और जीवन सुहाना हम जी पाएं,
मेरी भी आशा है हमारी पीढ़ी वो दिन फिर देख पाए ।
ना शायद रूबरू हो पाए उससे जो सच्चा बचपन कहलाता है,
तो चलो प्रयास करे रखने उसे अमर जो आज सिर्फ स्मृतियों में याद आता है ।
खुद से करे प्रण की अब जिम्मेदारी हमारी है,
परिचित करवाना है सुहानी संस्कृति से
जवाबदारी हमारी है ।
नानी की बुनाई की एक निशानी साथ रहे
और याद रहे दादी की एक कहानी ,
याद रहे दादा की वो पोटली जो हाथ थाम दिलाते थे,
और वो बाज़ार जो वो कांधे पे बिठा के घूमते थे,
दादा थे वो पहली बार जिन्होंने हाथी पर बिठाया था
और मां पापा के बाद उन्होंने ही गोद उठाया था ,
और न भूल पाऊं कभी वो मिठाई जो नाना मामा से बुलवाते थे,
स्मृतियों में चिन्हित रहे ।
धरोहर यह अनमोल सदा मेरे हिस्से रहे
प्रेम आशीष का हाथ सदा मेरे सर पर रहे ।
