मैं पुस्तक हूं
मैं पुस्तक हूं
मैं एक पुस्तक हूं
मेरा आकार
कुछ निश्चित सा है।
मैं छोटा भी हूं
मैं बड़ा भी हूं
मुझमें ज्ञान का अपार भंडार है ।
"मुझ में ही देवताओं
की बातें लिखी है"
मुझ में ही राक्षसों की
कहानियां छपी हुई है,
दो प्रेमियों का दर्द मेरे अंग अंग
में लिखा है तो कहीं किसी की
बेटी या बहु का दर्द बसा हुआ है।
वह प्राचीन राजाओं की महायुद्ध,
शहीदों का कब्र तो कहीं उन
सेनापतियों का युद्ध
नीति मुझ में ही लिखी हुई है।
क्योंकि मैं एक पुस्तक हूं!
हां!
मैं अमुक हूं,
पर बहुत कुछ कह सकती हूं
मैं असहाय नहीं।
हां!
मैं लंगड़ा हूं,
पर मैं अनंत मीलों तक चल
सकता हूं।
मैं अजर हूं, तरुण हूं,
मेरी कद लघु से अंत है।
मैं वो अमृत हूं जिसे लोग
पीकर प्रसन्न होते हैं।
मैं वो विष हूं जिसे लोग
पीकर जीवित होते हैं।
मेरी नृत्य से मेरी घुंघरू की
झनकार को सुन कर
लोग झूमते है।
मुझ में अच्छे गुण भी हैं
और बुरे गुण भी हैं
मैं पाठक को वही ज्ञान देता हूं
जो वह पढ़ना चाहता है।
क्योंकि मैं पुस्तक हूं!
मैं पाठक के लिए सरल हूं,
कठिन हूं मुझ में भी अमृत रूपी झरना बहता है,
बादल उड़ते हैं, चिड़िया गाती है
और बहारें खुलकर हंसती है ।
मैं एक अबला नारी सी सुंदर
जिसे लोग अपनी बांहों में
लेकर सोते हैं।
मेरी मंदिरों में न्यायालयों में
पूजा होती है
मैं स्वतंत्र हूं तो कहीं पुस्तकालय
की स्टोर कक्ष में मैं बंदी सी हूं।
मैं उन रचनाकारों की आत्मा हूं।
जो मुझे लय- तुक, रसों, अलंकारों,
से सुसज्जित करते हैं।
और मुझे एक सुंदर पुस्तक
होने का दर्जा देते हैं ।।