प्रभात रानी
प्रभात रानी
भानूदय की काल में ,
झितिज गगन की द्वार से ,
वह जगत परी सी शैने - शैने ।
मेघ रथ में आती हैं,
निशा बंधन को मुक्त करती ।।
सौम्या रूप को वह छुपाती ,
देख जगत हाय आ जाती ।
स्वर्ण भात काय तुम्हारी ,
कृष्ण केश है नभ में उड़ाती ।।
प्रभात होत कवि सखियां ले आती ,
पक्षी मधुर गीत सुनाती ।
पुष्प देख जगत परी को ,
पंखुड़ी पसार जन मन को लुभाती ।।
तेरी किरणे भू- वक्ष को छूती ,
सरिता सरोवर वन में जाती ।
जगत परी अपनी रूप को ,
समुद्र दर्पण में देख मुस्काती ।।
सुधा ग्रहण करके आती है,
वह परी खुदको अमर कहती है ।
सम्पूर्ण ब्राम्हांड में पाली है अमल ,
फिर भी हृदय में कपट न रखती है।।
हर्ष प्रमद पश्चिम दिशा में ,
निर्भय होकर चलती हैं।
प्रबल ताप लिऐ देह मे ,
तो क्या भय किस बात में
और क्यू वह इतनी जलती है ?
विशाल नीले अम्बर की गलियों में ,
घूर्णन गति से धीरे धीरे परिक्रमा करती ।
तेरा मुखड़ा स्वर्ण सुशोभित ,
कृष्ण मोतियन की माला धरणी ।।
