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Pt. sanjay kumar shukla

Abstract

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Pt. sanjay kumar shukla

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प्रभात रानी

प्रभात रानी

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भानूदय की काल में ,

झितिज गगन की द्वार से ,

वह जगत परी सी शैने - शैने ।

मेघ रथ में आती हैं,

निशा बंधन को मुक्त करती ।।

            

सौम्या रूप को वह छुपाती ,

 देख जगत हाय आ जाती ।

 स्वर्ण भात काय तुम्हारी ,

कृष्ण केश है नभ में उड़ाती ।।

              

प्रभात होत कवि सखियां ले आती ,

पक्षी मधुर गीत सुनाती ।

पुष्प देख जगत परी को ,

पंखुड़ी पसार जन मन को लुभाती ।।

                

तेरी किरणे भू- वक्ष को छूती ,

सरिता सरोवर वन में जाती ।

जगत परी अपनी रूप को ,

समुद्र दर्पण में देख मुस्काती ।।

                

सुधा ग्रहण करके आती है,

वह परी खुदको अमर कहती है ।

सम्पूर्ण ब्राम्हांड में पाली है अमल ,

फिर भी हृदय में कपट न रखती है।।

                 

हर्ष प्रमद पश्चिम दिशा में ,

निर्भय होकर चलती हैं।

प्रबल ताप लिऐ देह मे ,

तो क्या भय किस बात में

और क्यू वह इतनी जलती है ?

              

विशाल नीले अम्बर की गलियों में ,

घूर्णन गति से धीरे धीरे परिक्रमा करती ।

तेरा मुखड़ा स्वर्ण सुशोभित ,

कृष्ण मोतियन की माला धरणी ।।

          


                   



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