नारी व्यथा
नारी व्यथा
इस कलयुग में मीरा बनकर नारी,
ढूंढ रहे हैं कृष्ण को ।
एक ही माला प्रेम का जपना,
ढाई अक्षर प्रेम लिखा हुआ है
अर्पण वही मंत्र श्री कृष्ण को ।।
हर मेरी पीड़ा धर मेरी कर,
मनभावन मेरे मुरलीधर ।
सांसे रह-रहकर फूल सी जाति,
मन भटक रहा है इधर उधर ।।
अपनी चंद प्रेम मुझ पर बरसा दो,
मुरली की धुन मुझे सुना दो ।
संगीत हीन सी लगती यह युग है,
गोकुल की कुछ कहानी सुना दो ।।
नर आदमखोरो का जुग है,
जहां कितने अबलाओ को
खा चुकी हैं ।
शाही घरानों में पलते हैं,
ऐसे आदमखोर
परंतु चल रही है अपनी
इंसाफ के लिए लड़ने
वह थोड़ी रुकी है
पर नहीं झुकी है ।।
देखकर कुछ दुष्टों की क्रीडा को,
डर कर खड़ा हो जाता प्राण ।
क्यों खेलते हैं हमारी मर्यादा से ?
नष्ट कर दूंगी संसार को
जब दुर्गा रूप में आ जाऊंगी,
उठाकर अपनी कृपाण ।।
सम्मान हीन नारी को करके तू,
तू खुद अपनी काल बना रहा है ।
मैं हूं कमजोर! पर हम नहीं,
युग नारी प्रधान देश बना रहा है ।।
