प्रकृति मानव की
प्रकृति मानव की
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
मेरी छाँव में जो भी पथिक आया
थोड़ी देर ठहरा और सुस्ताया
मेरा मन पुलकित हुआ हर्षाया
मैं उसकी आवभगत में झूम झूम
लहराया
मिला जो चैन उसको दो पल मेरी
पनाहों में
उसे देख मैं खुद पर इठलाया
वो राहगीर है अपनी राह पे उसे
कल निकल जाना
ये भूल के बंधन मेरा उस से गहराया
बढ़ चला जब अगले पहर वो
अपनी मंज़िलो की ओर
ना मुड़ के उसने देखा न आभार
जतलाया
मैं तकता रहा उसकी बाट अक्सर
एक दिन मैंने खुद को समझाया
मैं तो पेड़ हूँ मेरी प्रकृति है छाँव देना
फिर भला मैं उस पथिक के बरताव से
क्यों मुर्झाया
मैं तो स्थिर था स्थिर ही रहा सदा
मेरा चरित्र
भला पेड़ भी कभी स्वार्थी हो पाया
ये सोच मैं फिर खिल उठा
और झूम झूम लहराया ...