एक ही रंग का रक्त
एक ही रंग का रक्त
क्यों मुझे तौलता है
मज़हब के तराजू में ?
एक ही रंग का रक्त
दौड़ता है तेरी – मेरी रगों में
बंट मत, बांटने वाले यहां लाखों हैं,
मेरी सच्चाई का सबूत,
देख कभी मेरी आँखों में
एक ही रंग का रक्त
दौड़ता है तेरी – मेरी रगों में
वो काटकर सिर मेरा
तलवार थमा देंगे तेरे हाथों में,
और खूब तमाशा देखेंगे
बैठ अपने गलियारों में
बहुत हुआ ये खेल भेद का
जाति, धर्म, भाषा के द्वेष का,
अब तो मिटे अंतर सारे,
चौड़ा हो सीना देश का
>मैं रंग दूँ तुझे केसरी,
तू रंग मुझे हरा,
ले कुछ जो है मेरा
आ मुझे दे कुछ तेरा
कभी आ बैठ मेरे मंदिर में
मुझे बुला मस्जिद में,
थोड़ा मैं झुकूं, थोड़ा तू झूक
क्या रखा है इस जिद्द में
मैं हाथ उठाकर मांगू,
तो क्या वो नहीं सुनेगा ?
या तेरे हाथ जोड़ने से
उसे एतराज़ होगा ?
फर्क तेरी – मेरी सोच का है
कुछ और नहीं,
वो है मेरी प्रार्थना में,
वही बसता है तेरी इबादत में,
एक ही रंग का रक्त
दौड़ता है तेरी – मेरी रगों में