कागज़ पर उतारूं कैसे !
कागज़ पर उतारूं कैसे !


उड़ते ख्यालों को थामूं कैसे ?
कागज़ पर उतारूं कैसे ?
शब्दों की कभी तंगी हो जाती है,
कलम की स्याही सूख जाती है,
विचारों का मेला होता है,
और मन कहीं अकेला होता है !
भाव उभरते हैं किसी ज्वार से,
गहरे हृदय-सागर से,
पर टकराकर किनारों से,
लौट जाते है बेसहारों से !
साथ देते नहीं अल्फाज़,
अनछूहे ही रह जाते है साज,
उठती तरंगों को गहू कैसे ?
कागज़ पर उतारूं कैसे ?
शब्दों की श्रृंखला टूट जाती है,
पिरोती तो हूं पर माला छूट जाती है !
भाव बिखरते है मोतियों की तरह से,
सम्भाल लेती हूं किसी भी तरह से !
कब तक कलम की नोंक पर आकर लौटेंगे,
कब इन भावों को सही अल्फाज़ मिलेंगे ?
कागज़ फिर कोरा ही रह गया,
सैलाब आते-आते थम गया,
बिजली चमकी, बादलों में खो गई !
जगी भावनाएं, थककर सो गई !
फिर इन्हें जगाऊं कैसे ?
कागज़ पर उतारूं कैसे ?