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Renu Singh

Abstract

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Renu Singh

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मन मेरा मनमौजी

मन मेरा मनमौजी

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मेरे अंदर एक मन रहता

मनमौजी बन थिरकता रहता

आंखें बंद करते ही

मन मेरा बन जाता मनमौजी

पंछी बन उड़ता आकाश में

मछली बन तैरता सागर में

तितली बन उड़ता उपवन में

भंवरा बन मंडराता कलियों में

थक जाता तो खो जाता खुद में

खोजने एक प्रकाश पुंज को

जो चिरन्तन रहता मुझमें

पर उसे कोई देख न पाता

मनमोजी मन मेरा धीरे धीरे

रमने उसमें लगता

जब चाहा मैंने उसे साधना

बंधन तोड़ भाग निकलता

मनमौजी मन मेरा

देखो अब उसी में रमता।



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