ऐसा आसमान दो
ऐसा आसमान दो


पंख दिये हैं तो,
उड़ सकूं ऐसा आसमान दो !
जनम दिया है तो,
जी सकूं ऐसा जीवन दो !
मैं कहीं सुप्त मन की कल्पना ही रही,
किसी मां के हृदय की गुप्त भावना ही रही,
गर्भ में ही मिटाई गई,
नौ मास जिसने संसार को ढोया।
क्यों वही यहां बोझ मानी गई ?
हुई हूं जब अंकुरित किसी कोख में,
तो विकसित होने का विधान दो !
पंख दिए है तो,
उड़ सकूं ऐसा आसमान दो !
कहीं जिस्म मेरा बाज़ार हुआ,
किसी ने बेचा, कोई खरीदार हुआ,
जब अपने ही देह पर न अधिकार हो,
कैसे ऐसा जीवन मुझे स्वीकार हो ?
पत्थर में भी
ढूंढ लेते हो भगवान,
नारी तो फिर भी है इंसान,
शोषित न कभी कहीं बनूँ
ऐसा एक शील आवरण दो !
पंख दिए है तो,
उड़ सकूं ऐसा आसमान दो !
वक्त बदलता रहा,
पर बदलती नहीं तस्वीर पूरी,
आज भी अधूरा सम्मान मेरा,
अधूरी बनती-मिटती छबी मेरी !
दंश नहीं गरलमय, एक बूंद सुधा हूँ
इस संसार का मैं भी एक भाग आधा हूं !
जन्म से जनने तक, एक कथा पूर्ण हूं,
आज किसी की बेटी, कल की नारी संपूर्ण हूं !
मां, बहन, बेटी ही नहीं
हर रूप में नारी को मान दो !
पंख दिए है तो,
उड़ सकूं ऐसा आसमान दो !