कलम
कलम
हर शाम इस महफ़िल में, बस तेरे गुमनाम हैं।
आसमाँ भी ख़ामोश देख,जमीन पर ठहरा हैं।
पसरा नहीं सन्नाटा हे, पर हर जगह ख़ौफ़ हैं।
हर कहीं आपदा हे, पर खरगोन मेरा ऐसा हैं।
हार्दिक की कलम हे, खरगोन मेरी जान सा हैं।
नहीं किसी और कि हे, बातें वे घड़ियाल सा हैं।
चारों और पसर रहा, रौद्ररूप जिसमें लाचार हैं।
सब बेबसी के मारे है,अनदेखा अनजाना सा हैं।
