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क्या तुम जीत पाओगे

क्या तुम जीत पाओगे

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सुनो,

जो मैं हार गयी तो

क्या तुम जीत पाओगे ?

क्या तुम जीत पाओगे इस वहम् से

कि तुम जीत गये ?


सुन ,

जो मैं जीत गयी तो

क्या तुम जीत पाओगे ?

क्या तुम जीत पाओगे अपने अहम से

कि हाँ मैं जीत गयी ?


सच कहूँ मैं क्या हूँ

ये तो तुम जानते भी नहीं !

या फिर जानकर भी

अंजान बने रहते हो !


पर तुम क्या हो ये मुझसे बेहतर 

कोई जान भी नहीं सकता है !

तुम्हारे शब्द रोज _

करते है बलात्कार मेरे कोमल मन का !


तुम्हारा तिरस्कार रोज,

उठाते है ढेर सवाल मेरे मन में

कि काश न तुम मुझे मिले होते न मैं तुम्हें,

इन सवालों का जबाव है बस

एक सच कि हम मिले नहीं हमें मिलाया गया था !

तुम्हें पाकर रोज कोसती हूँ अपने भाग्य को,

रोज पिती हूँ जहर घूट का !


सुनो,

क्या तुम इस सच को बर्दाश्त कर पाओगे,

कि मैंने कभी भी तुमसे प्यार नहीं किया

एक सेकेंड के लिए भी नहीं,

एक पल के लिए भी नहीं !


जानती हूँ नहीं कर पाओगे सहन क्योंकि 

तुम पुरुष हो

जिसमें पौरूष कुट कुट कर भरा हुआ है !

जो बस नारी मन को कुचलना जानता है !


जो हमेशा इस अहम् और वहम् में जीता है कि

उसने अपने गंदे शब्दों से

एक औरत को चुप करा दिया,

उसने अपने पौरूष के बल पर

एक औरत को पा लिया !


सुनो,

क्या तुम ये सुन पाओगे कि 

तुमने मेरे शरीर को तो पा लिया पर,

मेरे मन को छू नहीं पाये !

मैंने तुम्हारे मकान को घर तो बना दिया

पर मेरे दिल में घर न 

बना पाये तुम !


बोलो न क्या सुन पाओगे तुम ?

क्या सुन पाओगे तुम कि

मैंने तुमसे कभी प्यार नहीं किया !


बोलो न क्या अपने अहम् और वहम् से,

जीत पाओगे तुम !

कि तुम जीते नहीं थे कभी

न ही मैं कभी हारी थी !


ये खामोशी तो तुम्हारे घर को बनाने की शर्त थी

जो न होती मैं खामोश तो सब खतम हो जाता !

मेरी सहनशक्ति ही इस रिश्ते की नींव है !

जो शक्ति मुझे मेरे माता-पिता ने

संस्कार स्वरूप दिये थे !


सुनो, 

क्या तुम सुन पाओगे 

कि तुम कभी जीते ही नहीं 

क्योंकि तुम कभी जीत ही नहीं सकते।

 

क्योंकि जीत हार दिल के रिश्तों में 

होती ही नहीं !

जीत हार तो होती है वहां जहाँ _

सिर्फ़ और सिर्फ़ अहम् होता है !

जहाँ सिर्फ और सिर्फ ताकत का दंभ होता है !


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