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लाल बत्ती

लाल बत्ती

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जाने कब से द्वंद चल रहा था उसके अन्दर । 

"चल तैयार हो जा मुँह क्यों बना है ? चल हँस।"

 "हाँ ठीक है ,ठीक है , जानती हूँ बिमार है , दवा पड़ी है , खा ले शाम होने को आई कस्टमर आता होगा ।"


बिलख पड़ी शोभा ,पर फिर बिन दवा खाये ही चेहरे को सजाने लगी । आइने में यूँ लगा अचानक ही उसकी परछाई भी संग उसके रो दी । कोई तो ना था जिससे बातें कर मन हलका करती । ये झिड़कियाँ तो रोज की कहानी थी बस उसकी ही नहीं, कोठे की हर लड़की की । आदत सी हो गयी थी कोई जिये मरे किसी को परवाह नहीं ।


आइने के सामने बैठी खुद से ही बातें करने लगी मौन । अपने चेहरे से मुखौटा उतार खूब चीखना चाह रही थी ।


कौन हूँ मैं ? क्या हूँ मैं ? क्या सच मैं एक इंसान हूँ या बस एक देहमात्र जिसे जब बिना मेरी मर्जी के ........?

रोज ये द्वंद चलता अन्दर उसके ।

 क्या वजूद है मेरा कुछ नहीं ।

मेरी बस एक ही पहचान है " वेश्या " जिसे जब चाहे जो चाहे पैसे फेंक रौंद कर निकल जाता है ।

 फफक पड़ी शोभा फिर । तभी मानो अंदर से आवाज आयी शायद आत्मा की आवाज । "पगली तू वेश्या नहीं, देवी का दूसरा रुप है , तू है तो ये दरिंदे यहाँ आते है और कोई लड़की इनकी हवस का शिकार होने से बच जाती है।तू मौन है तो सभी सफेदपोशों के घिनौने चेहरे छिपे है ।तू है तो इस श्रृष्टि से पाप का बोझ थोड़ा कम है । तू तो पवित्रता की मूर्ति है पूजन योग्य है।"

"अरे अपवित्र तो वो है जो तुझे शरीर मात्र समझते है । चल उठ कि आज तुझे फिर से बिक कर एक लड़की की अस्मत लुटने से बचानी है।"


आँसू सूख गये शोभा के आज खुद से ही आत्मसात हो कर । उठ खड़ी हुई कि शाम होने को आ गयी थी कोठे की मालकिन की गालियाँ और तबले की आवाज कमरे तक आ रही थी । आज मुद्दतों बाद मुस्कुरायी आइने की तरफ देख मानो कह रही हो "हाँ मैं अपवित्र नहीं, ना ही गंदगी हूँ , मैं तो वेश्या हूँ जो समाज की गंदगी अपने सर लेती हूँ । मैं तो रक्षक हूँ ।"



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