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नविता यादव

Abstract

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नविता यादव

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एक आरजू

एक आरजू

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खामोशी के इस मंजर में

वो मुकाम भी आने दो

जब सारी चुपिया टूट जाये,

तुम मुझ में और मैं तुम में खो जाये,


चाहतें हमारी पाक हैं,

ये तुम भी जानते हो और मैं भी,

फिर क्यों है इतनी दूरियाँ ?

फसाने हमारे हम जानते हैं,


एक दूसरे को पहचानते हैं,

एक सुकूं तू भी चाहता है,

एक सकूं मैं भी चाहती हूँ,

ना तू मुझ से कोई उमीदें रख,

ना मैं तुझसे कोई उमीदें रखू


बस जो पल हम दोनों को सकूं दे,

वो पल साथ में जी ले

आओ एक दूसरे से ये वादा कर ले,

खामोशी के इस मंजर मैं उस

मुकाम को आने दे।


दुनिया की इस भीड़ में

मेरा दिल खोता जा रहा है,

अंदर ही अंदर कहीं

डूबता जा रहा है,


चेहरे पे मुस्कान है,

अपनी जिम्मेदारियों का एहसास भी है,

पर आज भी मेरी आँखें

तुझको तलाश कर रही हैं,


तेरे कांधे पे सिर रख कर

जी भर रो लेना चाहती हैं,

मुझे अपने कांधे पे सिर रख

कुछ पल रो लेने तो दे,


चुप कर अपने

आशियाने में लौट जाऊँगी,

तू इतना भरोसा तो कर।

मैं तुझे न चाहती हूँ और

न प्यार ही करती हूँ,

तू मेरी जिंदगी का वो दौर है,


जिसके साथ मैं सिर्फ

खुशी के पल जीना चाहती हूँ।

तू मेरी जिंदगी की सारी हकीकत जानता है,

मेरा दर्द, मेरी तकलीफ़ को पहचानता है,


एक तू ही जिसकी वजह से आज मैं हूँ,

बस एक एहसान और कर दें,

मुझे अपने कांपवधे का सहारा दे दें,

और जी भर रो लेने दे।।


किसी से कुछ न बोलूंगी,

उस पल को अपने ही

भीतर छुपा लूंगी,

बस एक बार मान तो जा,

मेरे दोस्त, मैं जी भर रो के

अपने आशियाने मैं लौट आऊँगी।


बस खामोशी के इस मंजर में

वो मुकाम तो आने दे।


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