प्यार की डगर
प्यार की डगर
चाहतो की डोरी में बंधे रिश्ते,
उलझनों की रस्सी में उलझते चले गए,
कोई मिली न मंजिल,
अपनी ही डगर में डगमगाते चले गए।।
शमा बना आशियाना बना,
पर उस आशियाने के अंदर
कोई न सयाना बना,
हर कोई फरयादी बना
हर कोई जज बना,
ना कोई सुनने-सुनाने वाला बना,
न कोई दिले -दिलदार बना,
सिर्फ़ यही फ़साना बना,
चाहतो की डोरी में बंधे रिश्ते,
उलझनों की रस्सी में उलझते चले गये,
कोई मिली न मंजिल,
अपनी ही डगर में डगमगाते चले गये।।
क्या होती है मोहब्बत,?क्या होता है प्यार,?
क्या होती है चाहत? क्या होती है इबादत,?
इन्हीं प्रश्नोत्तर के बीच उलझा हर फ़साना है,
जिंदगी खतम हो जाती है
,पर जीना समझ नहीं आता है,
बाते बहुत सी दिल मै होती है,
पर कहने का अंदाज समझ नहीं आता है,
यूँही दिन-प्रतिदिन जिन्दगी बढ़ती चली जाती है,
इन्सान अपने अहम में वही खड़ा रह जाता हैं,
रिश्ते वही सब बने रहते हैं,
पर रिश्ते निभाने का सिलसिला कहीं थम जाता हैं,
और वही फ़साना फिर से धोराया जाता हैं,
चाहतो की डोरी में बंधे रिश्ते,
उलझनों की रस्सी में उलझते चले गये
कोई मिली न मंजिल अपनी ही
डगर में डगमगाते चले गये।।
चाहतो की डोरी में बंधे रिश्ते,
उलझनों की रस्सी में उलझते चले गए।।
एक मोड़ फिर ऐसा आता है,
जब सब कुछ समझ आता है,
पर फ़साना कुदरत का देखो,
तब चाहत निभाने के लिए
अपना कोई पास नहीं होता है,
और फिर वही गाना होता है,
चाहतो की डोरी में बंधे रिश्ते,
उलझनों की रस्सी में उलझते चले गये,
उलझनों की रस्सी में उलझते चले गए।।