"ग़ज़ल"
"ग़ज़ल"
ज़माना पैसे पे निसार हुआ
तमाम रिश्ता तार तार हुआ।
कदम कदम पे कांटे बिछे हैं
चलना नंगे पांव दुश्वार हुआ।
नफ़रत इंसानियत पर हावी हुई
देखकर मौला ये शर्मसार हुआ ।
खुलेंगे उम्मीद के कब दरवाज़े
कौम से कौम का तक़रार हुआ।
रिश्ते मुफलिसी में टूटे हैं अक्सर
'अपना' मानने से इंकार हुआ।