"ग़ज़ल"
"ग़ज़ल"
ज़माना पैसे पे निसार हुआ ,
तमाम रिश्ता तार तार हुआ!
कदम कदम पे कांटे बिछे हैं,
चलना नंगे पांव दुश्वार हुआ!
नफ़रत इंसानियत पर हावी हुई
देखकर मौला ये शर्मसार हुआ !
खुलेंगे उम्मीद के कब दरवाज़े,
कौम से कौम का तक़रार हुआ!
रिश्ते मुफलिसी में टूटे हैं अक्सर,
'अपना' बनाने से इंकार हुआ!!