STORYMIRROR

Mumtaz Hassan

Abstract

4  

Mumtaz Hassan

Abstract

"ग़ज़ल"

"ग़ज़ल"

1 min
30

ज़माना पैसे पे निसार हुआ ,

तमाम रिश्ता तार तार हुआ!


कदम कदम पे कांटे बिछे हैं,

चलना नंगे पांव दुश्वार हुआ!


नफ़रत इंसानियत पर हावी हुई 

देखकर मौला ये शर्मसार हुआ !


खुलेंगे उम्मीद के कब दरवाज़े,

कौम से कौम का तक़रार हुआ!


रिश्ते मुफलिसी में टूटे हैं अक्सर,

 'अपना' बनाने से इंकार हुआ!!



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract