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Mumtaz Hassan

Abstract

4  

Mumtaz Hassan

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"ग़ज़ल"

"ग़ज़ल"

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ज़माना पैसे पे निसार हुआ ,

तमाम रिश्ता तार तार हुआ!


कदम कदम पे कांटे बिछे हैं,

चलना नंगे पांव दुश्वार हुआ!


नफ़रत इंसानियत पर हावी हुई 

देखकर मौला ये शर्मसार हुआ !


खुलेंगे उम्मीद के कब दरवाज़े,

कौम से कौम का तक़रार हुआ!


रिश्ते मुफलिसी में टूटे हैं अक्सर,

 'अपना' बनाने से इंकार हुआ!!



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