बदनसीब बचपन
बदनसीब बचपन
मैं-एक छोटा सा बालक हूं
बाल्यकाल में भी अपना बचपन नहीं देखा-मैंने
बालश्रम की अंधकारमय दुनिया में,खो गया है बचपन मेरा
गरीबी ने किया- शिक्षा से वंचित मुझे
सुबह- पौ फटते ही निकल पड़ता हूं- काम की तलाश में
चिमनियों/भठ्ठियों/ फैक्ट्रियों में, कल कारखानों /होटलों ढाबों में झुलसता ह
दिनरात बचपन मेरा- दो जून की रोटी खातिर
खाने पड़ते हैं अक्सर- मालिक के डंडे ,
आए दिन सहन करता हूं जाने कितने ही शोषण/ जुल्मों-सितम मैं,
ठोकरें खाता हूं दर दर की रोज ही
समाज दुत्कारता है मुझे
, करता है दृषिपात-हेय दृष्टि से क्योंकि गरीब / बदनसीब बालक हूं मैं
समाज के तिरस्कार का कड़वा घूंट पी पीकर जीता हूं-नित्यदिन
और कर भी क्या सकता हूं -पापी पेट का सवाल है बाबू,
तुम का ...जानो पेट की जलन को,तुमने तो गरीबी देखी ही नहीं
नित्यदिन-एक सपने मरते हैं मेरे/ भूख की सूली पे चढ़ा देता हूं-शौक अपने सारे......
कभी कभी-मन ही मन कोसता हूं खुद को,भाग्य को
और उस सृष्टि निर्माता को -जिसने.......
जीवन तो दिया , परन्तु जीने का अधिकार नहीं दिया हमको......!!