सुनो तात..!
सुनो तात..!
सुनो तात..!
घर की दरो दीवारें पूछती है
तुम कहाँ हो, कब आओगे
वो तुम्हारे कमरे की पिलो और लिहाफ पूछते हैं
ओ मुझे अपने से समझने वाले
कितने दिन रिते तुम बिन
आखि़र तुम कब आओगे
वो स्कूल बैग से झांकती तुम्हारी फिजिक्स की बेजिल्द वाली मुड़ी तुड़ी सी पुस्तक पूछे है
मुझमें छुपाकर मोबाइल चलाना
फिर कब आयेगा वो जमाना
आख़िर तुम कब आओगे..?
वो बहन से हर बात में लड़ना
वो तुम्हारा तैश में आना
कभी गोलगप्पा होकर आगे से भोजन का छोड़ जाना
सब यही सवाल करते हैं
तुम कब आओगे..?
सुना सुना सा लगता है दरवाजा
हर चौखट भी शांत ही रहती है
ना रस है बातों में ना कोई बात चलती है
सोचती हूँ आख़िर किसको दिखाते होगे अपने नखरे
कौन उठाता होगा तुमको वक़्त बे वक़्त
किस पे चीखते होगे बात बात पर
कौन होगा देखता तुम्हारा ट्रेलर
और कौन सहता होगा तुम्हारे क्रोध को
पता नहीं तुमको कुछ याद भी है या नहीं
हैं तुम्हारे कुछ अनगिनत चाहने वाले
वो भी पूछते हैं सबसे कबसे आखि़र तुम कब आओगे..?
सुनो वत्स..!
बहुत हुआ यूँ घूमना फिरना मौज मस्ती
नहीं ज्यादा पर थोड़ा ही सही
कर लो ज्ञान विज्ञान से दोस्ती
कल को जब कुछ ना होगा पास तुम्हारे
काम देंगे ये ज्ञान सारे
और अधिक क्या कहूँ बच्चे
माना कि हम सबके जैसे नहीं अच्छे
पर मन नहीं रमता तुम बिन ख़ुद माँ का
तात भी हैं हर पहर नाम तुम्हारा रटते
अब लौट भी आओ घर को
राह तकते हैं घर के द्वार खुलते दरवाजे।
