पर्यावरण
पर्यावरण
कहां खो गए वो हरे भरे खेत, कहां खो गई वो रेत?
खेतों की तो "मेड़" ही कट गई, रेत से बिल्डिंग बन गई।
कहां खो गया घर के आंगन में लगा नीम का वो पेड़,
कहां खो गई गाय, बकरी और भेड़?
पेड़ से फर्नीचर बन गया, भेड़ का दाना पानी बंद हो गया।
कहां गए वो बैल और बैलगाड़ी, कहां गई घर में लगी बाड़ी?
बैल बैलगाड़ी ट्रेक्टर और कार बन गए,
घर की बाड़ी, ए सी का शिकार हुई।
कहां गए गांव ढाणी, कहां गया शुद्ध पानी?
गांव और ढाणी शहर की चकाचौंध में खो गए,
शुद्ध पानी (अमृत) भी अब जहर हो गया।
कहां गई संस्कारों की दवा, कहां गई बहती शुद्ध हवा?
संस्कार आधुनिकता की भेंट चढ़ गए,
जीवनरक्षक (शुद्ध हवा) भी अब तो जीवनभक्षक हो गई।
कहां खो गई मन की शांति, कहां खो गई वो भक्ति और शक्ति?
मन की शांति "लालसा" की भेंट चढ़ी।
भक्ति भटक रही स्वार्थसिद्धि में,
"अर्थ" शक्ति का समाया बस "अर्थ" में।
"पर्यावरण बचाओ" केवल "स्लोगन" बनकर रह गया,
लगता है जैसे "पंचतत्वों" का आधार ढह गया।
प्रदूषण से प्रकृति रूष्ट हुई,
शुद्ध हवा, पानी और माटी नष्ट हुई।
देर भले हो गई, पर्यावरण का महत्त्व समझने में,
देर भले हो गई, स्वार्थ अपना तजने में।
अब भी समय है सुधरने और सुधारने का,
अब भी समय है विकराल होती इस विपदा से पार पाने का।
एक दिन नहीं, एक व्यक्ति नहीं
प्रतिदिन और प्रत्येक व्यक्ति को संकल्प लेना होगा,
पर्यावरण बचाकर भविष्य अपना बचाना होगा।