लड़के .. हमेशा खड़े रहे
लड़के .. हमेशा खड़े रहे
लड़के ! हमेशा खड़े रहे
उन्हें कहा गया बार बार,
तुम तो लड़के हो …
खड़े हो जाओ बस इस बार.
खड़े रहना उनकी बनी कभी जरूरत
तो कभी मज़बूरी रही
पर वे खड़े रहे ...
सुबह से शाम तक
चाहे रात क्यूँ न हो गई
वे खड़े रहे... तारों से बतियाते ..
बचपन से जवानी तक ..वे खड़े रहे,
कक्षा के बाहर.. या बेंच पर ...वे खड़े रहे
वे खड़े रहे मैदान में हौसला अफजाई के लिए
जब खेल रही थी, साथ पढ़ने वाली लड़कियां..
वे खड़े रहे जब ठिठुर रही थी खिड़कियां.
बारिश में खड़े रहे भीगते हुए
खड़े रहे तपती धूप में सिकते हुए
जब ली गई ग्रुप फोटो, स्कूल से विदाई पर
बैठी लड़कियाँ आगे,
बगल में हाथ दिए, वे खड़े रहे पिछली लाइन पर.
तस्वीरों में आज तक खड़े हैं..
जाने कब तक खड़े रहेंगे अपनी यादों में ...
कॉलेज के बाहर खड़े होकर,
करते रहे इंतज़ार मिलने का.
कभी किसी घर के बाहर घंटों खड़े रहे,
बस इक झलक दिखला दे.. इसी चाह में.
अपने आपको आधा छोड़ वे आज भी खड़े हैं
तरसती निगाहों संग ... खड़े हैं
जैसे खड़ा बरगद सदियों से..
खड़े हैं ... बहन की शादी में..
मंडप के बाहर ...बारात का स्वागत करने के लिए.
खड़े रहे... रात भर हलवाई के पास,
कभी भाजी में कोई कमी ना रहे.
खड़े रहे ...बारातियों की सेवा में
कोई स्वाद कहीं खत्म न हो जाए.
खड़े हैं ... डोली के पास ...विदाई तक
दरवाजे और टैंट के सहारे
अंतिम पाईप के उखड़ जाने तक.
बहुत कुछ कहती है
उनकी भी नम होती आँखें और रुंधता गला
दर्द छुपा लेते हैं
अपनी मुस्कान के पीछे ..
वे खड़े ही मिलेंगे...
बहन वापस लौटेंगी तब तक ..
उसी दरवाजे पर... बहन के इन्तजार में
छिपा लेंगे दिल के जज्बात
अधरों से निकल न जाये कोई बात
वे खड़े रहे सपने औरों के सजाकर
पत्नी को बैठाकर,
वे खड़े रहे बच्चों को सुलाकर
नींद थी आँखों में पर
वे खड़े रहे ... नींद को अपनी भगाकर
सपनों के पीछे भागना छोड़कर .. वे खड़े रहे ..
माँ की बीमारी
बीमार कर जाती उनको
पर वे खड़े रहे ओ. टी.के बाहर ...
घड़ी की सुइयां दौड़ती रही
पर वे खड़े रहे
माँ के मुंह से आवाज़ सुनने को
तरसते रहे "माँ" की झलक पाने को
वे खड़े रहे ...
पिता की मौत पर
मातम में बैठे थे सभी
वे खड़े रहे
अंतिम लकड़ी के जल जाने तक.
मन पिघलता रहा
अश्रुधारा बहती रही
पर वे खड़े रहे ... मजबूत कर अपने कन्धों को
वे खड़े रहे.. बहाते पिता की अस्थियां गंगा में.
खड़े रहे पवित्र पुष्कर के ठन्डे जल में.
आज भी खड़े हैं बनकर शिकार परिस्थितियों के
खड़े हैं कभी अपने लिए तो कभी अपनों के लिए ।
