अनजानी दीपावली
अनजानी दीपावली
दीपों से सजती दीपावली और आँगन में बनती रंगोली
कच्ची दीवारें रंगते, घर की साफ-सफाई करते
बाल मन आनंदित होता, जब पहनने को कुछ नया मिलता
इन्तजार रहता....
"माँ" की मिठाइयों का, बहन के ससुराल से आने का
तभी तो अपनों संग अपनी सी लगती थी दीपावली
घूम-घूम मंदिरों में दीप जलाते, दोस्तों संग पटाखे चलाते
मिलकर पूजते लक्ष्मी जी को और खुला छोड़ देते धन को
सुबह जल्दी उठ, आशीर्वाद बड़ों से लेते
घरों में जाकर राम-राम जो करते, प्रसाद संग आशीष पाते.
तभी तो अपनों संग अपनी सी लगती थी दीपावली
अब तो अनजानी सी लगती है दीपावली ...
दीपों का त्योहार न रही, रोशनी "LED" से हो रही
न रहा उल्लास बचपन में, मोबाईल जो आ गया हाथों में
घर की कच्ची दीवारें बदली और बदल रहे रिश्ते-नाते
तभी तो अनजानी सी लगती है दीपावली
"माँ" को चिढ़ा रही, घर में सजी बाजारू मिठाइयां
अपनत्त्व से सजे इस उत्सव को, खा रही आपसी रुसवाइयाँ
अब तो मन रही सोशल मिडिया पर होली-दीवाली
तभी तो अनजानी सी लगती है ये दीपावली
माया का ये कैसा मोह? घृणा को मिल रही ठोह
इंसानियत से हुआ जो किनारा, रास्ता हुआ न्यारा
राम-राम करना जो छूटा, आशीष बड़ों का हमसे रूठा
तभी तो अनजानी सी लगती है ये दीपावली।
