यक्ष प्रश्न
यक्ष प्रश्न


सामने वाले घर की मुंडेर पर,
वह जलता हुआ मिट्टी का दीया,
अंधेरों से बेतहाशा लड़ता हुआ,
उसकी जलती हुई बाती,
अँधेरे के विरुद्ध डटी हुई,
बिना घबराये बिना डरे,
बस एकटक जले जा रही थी,
दीये का था एकमात्र सहारा,
जैसे कि पागल उन्माद से भरी भीड़ में,
कोई महापुरुष भीड़ को अनदेखा करते हुए,
भीड़ के उन्माद से लड़ते हुए,
एकटक जलता जा रहा हो,
भीड़ को भीड़ की औकात का अहसास कराने।
जहाँ देखो वहाँ लोगों का मजमा,
बस भीड़, भीड़, भीड़,
निरुद्देश्य, बिना किसी सोच,
बिना किसी मुद्दे के,
बस एक ही अभिप्राय – आतंक,
बिलकुल उस अँधेरे की तरह,
बिना किसी उचित उद्देश्य,
जो चलता प्रकाश के विरुद्ध,
मार्गों को करता रहता रुद्ध,
व्यवस्था के विरुद्ध,
हर बात का विरोध,
बिना किसी तर्क, बिना किसी आधार,
खुद का किसी को कोई काम नहीं,
वक़्त का सम्मान नहीं,
बस समाज में अराजकता फैलाते।
माँ बाप के बिगड़े बच्चे,
संस्कारों को भूलते बच्चे,
क्या लड़का, क्या लड़कियां, क्या नौजवान,
जाने क्यों हैं आज दिग्भ्रमित?
सबको चाहिए व्यवस्था से आजादी,
ठीक उस अँधेरे की तरह,
जिसे नहीं सुहाता प्रकाश,
लड़ता रहता उस दीये से,
लड़ता रहता दीये की जलती लौ से,
बिना किसी सही मकसद,
बिना किसी संस्कार।
क्या यही है आज का व्यवहार?
तथाकथित समाज के ठेकेदारों का संस्कार?
हरदम विघटन भरी सोच,
हरदम विरोध की निरुद्देश्य ध्वनि,
दम तोड़ते संस्कार,
व्यवस्था से बलात्कार,
बड़ों से बदतमीजी,
छोटों से असंतोष,
दीये की उस लौ से इतनी नफरत?
प्रकाश को बुझाने का भरसक प्रयास?
पनप रहा है कोई षड्यंत्र,
मन के हर कोने में,
किताबों के पन्नों में,
अख़बार की ख़बरों में,
भावों की अभिव्यक्ति में,
हर बात में असंतोष, असहिष्णु मानसिकता,
धर्म के नाम पर मार काट,
अधिकार और वर्चस्व की लड़ाई,
हर बात में विघटन की माँग,
देश के टुकड़े टुकड़े करने की गिरी हुई सोच,
अस्मिता से खिलवाड़।
उठता एक यक्ष प्रश्न……
कब तक जल पाएगी?
कब तक टिमटिमाएगी?
उस दीये की लौ
कब तक मिलेगा उसे दीये का सहारा?
कब तक जूझता रहेगा वह दीया?
अपने आप से,
कब तक बचाता रहेगा खुद को,
भीड़ के कोहराम से?
दीया अँधेरे कि दरिंदगी का शिकार बन गया,
लौ लड़ती रही,
अंधकार से, अंतिम दम तक,
भीड़ का उन्माद बढ़ गया,
पत्थर, भाले, तलवारें,
गूंजते हुए नारे,
“हमें चाहिए आजादी, भारत तेरे टुकड़े होंगे”,
“धर्म बदलो, या मरो या वतन छोड़ो”
मारो काटो जला डालो,
बस यही शोर, उन्माद घनघोर।
और एक दीया बिखर गया,
और एक लौ बुझ चुकी थी,
बस इंतजार रह गया और एक दीये का……
सहारा देने के लिए…..
दीये की जलती लौ को…..।
क्यों होता हैं यूँ हर बार?
क्यों हावी हो जाता प्रकाश पर अंधकार?
क्यों जाता है दीया हार?
क्या समाज में कोई ऐसा दीया नहीं?
जो बाती को सहारा दे सके?
जिसकी लौ फिर जल सके?
करो कुछ ऐसा जतन,
न बुझ पाए फिर बाती की लौ,
न विखंडित हो फिर किसी संस्कार का दीया,
न शहीद हो कोई दीया अंधकार से लड़ते लड़ते,
हर मुंडेर पर एक दीया जले प्रकाश का,
मिलकर भगा दे अंधकार सदा के लिए…….।