तोड़ता क्यों प्रीत धागे
तोड़ता क्यों प्रीत धागे


भूलकर सारे नियम जब
व्यसनों के पीछे भागे
योग-ध्यान दिखे कहाँ अब
दुष्टता में रहा आगे।
हो गया जर्जर बदन अब
बन गए हैं प्राण रोगी
जाल में उलझे पड़े सब
बन गए हैं यंत्र भोगी
मृत्यु को देते निमंत्रण
हुए सब कैसे अभागे
योग-ध्यान दिखे कहाँ अब
दुष्टता में रहा आगे।
हो गई ये हवा ऐसी
प्राण जिसमें घुट रहा है
भीति बेड़ी बनी कैसी
स्वार्थ में सुख सब बहा है
बो रहा विष-बीज खुद ही
तोड़ता क्यों प्रीत धागे
योग-ध्यान दिखे कहाँ अब
दुष्टता में रहा आगे।
ठूँठ बनता वृक्ष सोचे
बीज किसने आज रोपे
बाग भी उजड़े हुए से
दोष किसके शीश थोपे
व्याधियाँ हँसने लगी जब
सो रहे दिन रात जागे
योग-ध्यान दिखे कहाँ अब
दुष्टता में सबसे आगे।