वो कली मासूम सी
वो कली मासूम सी
बेड़ियों ने रूप बदले
रख दिया तन को सजाकर
वो कली मासूम सी जो
देखती सब मुस्कुराकर।
शूल बोए जा रहे थे
रीतियों की आड़ में जब
खेल सा लगता उसे था
जानती सच ये भला कब
छिन रहा बचपन उसी का
पड़ रहीं थीं सात भाँवर
छूटता घर आँगना अब
नयन से नदियाँ बहीं फिर
हाथ में गुड़िया लिए थी
बंधनों से अब गई घिर
आज नन्हें पग दिखाएँ
घाव सा छिपता महावर।
बोझ सी लगती सदा है
बेटियाँ क्यों है पराई
मूक रहती और सहती
ठोकरें और मार खाई
वेदना का घूँट पींती
क्या मिले सबकुछ गँवाकर।