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Abhilasha Chauhan

Abstract Tragedy Inspirational

3.8  

Abhilasha Chauhan

Abstract Tragedy Inspirational

वो कली मासूम सी

वो कली मासूम सी

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बेड़ियों ने रूप बदले

रख दिया तन को सजाकर

वो कली मासूम सी जो

देखती सब मुस्कुराकर।


शूल बोए जा रहे थे

रीतियों की आड़ में जब

खेल सा लगता उसे था

जानती सच ये भला कब

छिन रहा बचपन उसी का

पड़ रहीं थीं सात भाँवर


छूटता घर आँगना अब

नयन से नदियाँ बहीं फिर

हाथ में गुड़िया लिए थी

बंधनों से अब गई घिर

आज नन्हें पग दिखाएँ

घाव सा छिपता महावर।


बोझ सी लगती सदा है

बेटियाँ क्यों है पराई

मूक रहती और सहती

ठोकरें और मार खाई

वेदना का घूँट पींती

क्या मिले सबकुछ गँवाकर।


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