भोर उजली स्वर्ण जैसी**नवगीत**
भोर उजली स्वर्ण जैसी**नवगीत**
भोर उजली स्वर्ण जैसी
नीड़ में पंछी चहकता
पुष्प खिलकर झूमते से
केश में गजरा महकता
आस की चटकी कली अब
दे रही संकेत ऐसे
दर्द का अब अंत होगा
रात ढलती देख कैसे
जब खुशी आहट सुनाती
तितलियों सा मन बहकता।
आज प्रज्ञा भ्रामरी सी
डोलती फिरती गगन में
और रजकण चूमती सी
हो रही कितनी मगन मैं
खेलता हैं आज आँगन
सूर्य जो नभ में दहकता।
है वही संसार सारा
आज लगता देख अपना
प्रेम से पावन धरा ये
पूर्ण होता देख सपना
काननों के रूप बदलें
सोच कर ये मन लहकता।