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Abhilasha Chauhan

Abstract

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Abhilasha Chauhan

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कुंडलिया छंद(ममता,बाबुल,भैया)

कुंडलिया छंद(ममता,बाबुल,भैया)

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 ममता

ममता की समता नहीं,सब कुछ देती वार।

बस इसकी ही छाँव में,खुशियाँ मिलें अपार।

खुशियाँ मिले अपार,खिले बचपन फूलों सा।

अपना सब कुछ हार,चुने वह पथ शूलों सा।

करे नहीं छल-छंद,दिखाती है वह समता।

बनी चाँदनी तुल्य,चंद्र सी शीतल ममता।


बाबुल

बिटिया बाबुल से कहे,मत भेजो ससुराल।

तेरी तो मैं लाड़ली,क्रूर कठिन है काल।

क्रूर कठिन है काल,कहे क्यों मुझे पराई।

कैसे लगती भार,तुझे अपनी ही जाई।

दो-दो हैं परिवार,कहाँ है मेरी कुटिया।

बदलो अब ये रीति,तभी मैं तेरी बिटिया।


 भैया

भैया तेरी याद में, मुझे न आए चैन।

आँखों में छवि घूमती,दिन हो चाहे रैन।

दिन हो चाहे रैन,बहे आँसू की धारा।

जैसे टूटे बाँध,टूटता नदी किनारा।

कैसे धर ले धीर,दूर जो हुआ खिवैया।

मात-पिता का चैन,बहन का प्यारा भैया।


 बहना

बहना बनकर बावरी,नाचे जैसे मोर।

भैया वर के रूप में,लगता नंदकिशोर।

लगता नंदकिशोर,चंद्र सा मुख है चमका।

पीत वसन हैं अंग, सूर्य ज्यों नभ पर दमका।

अधरों पर मुस्कान,शीश पगड़ी है पहना।

देती नजर उतार,लगाती काजल बहना।


   सखियाँ

सखियाँ झूला झूलती, वृंदावन के बाग।

मनमंदिर में मीत का,बसा हुआ है राग।

बसा हुआ है राग, राग वे मधुर सुनाती।

ऐसे छेड़ें तान,लगे बुलबुल हैं गाती।

मदन करे श्रृंगार,देखती सबकी अखियाँ।

रति का लगती रूप,बाग में सारी सखियाँ।


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