चाय के बिन कहाँ...
चाय के बिन कहाँ...


सूर्य भी शीतल सा हुआ
धूप का दिखना विरल है।
आँख अलसाई उनींदी
देखती बस एक प्याली
गंध जिसकी सूँघ सौंधी
गाल पर आती है लाली
तेज जीवन का बना अब
आज ये कैसा तरल है।
कँपकँपाते हाथ शीतल
आसरा ढूँढे किसी का
भाप साँसें छोड़ती जब
थामती दामन उसी का
आग ठंडी पड़ चुकी जब
ताप भी होता विरल है।
आज शोभा बन चुकी है
महकती जिससे रसोई
दूध तो सपना बना है
संस्कृति भी आज खोई
चाय के बिन अब कहाँ ये
ठंड में जीवन सरल है।