स्त्री
स्त्री


वह अबला है पर नारी की किस ओर बताओं धाक नहीं !
थी वही आदि में रणचंडी, थी वही मातु दुर्गा काली
थी वही पार्वती सतरूपा, वह ही लक्ष्मी, वीणा वाली
हैं रूप सहस्रों उस माँ के इस जग का तम हरने वाले
हैं हाथ उसी माँ के लाखों दुखियों का घर भरने वाले
हे माते तेरा एक हाथ यदि दुर्जन का संहारक है
तो माते तेरा कर दूजा खल पतितों का उद्धारक है
यदि एक हाथ से तुमने माँ पापी को दंड दिया, मारा
तो दूजे से निजबालक सा सारे जगती को पुचकारा !
है गाथा तो बीते युग की, है किन्तु आज भी प्रासंगिक
नारी ही केंद्र बनी जिसपर चलता हर निगमन सामाजिक
बन गृहलक्ष्मी घर की शोभा इक ओर बढ़ाती है प्रतिपल
इक ओर बनी माँ घर भर की सर पर फैलाती है आँचल
शिक्षित होकर उत्कर्षो के वह सोपाने भी चढ़ लेती है
घर में रहती लेकिन सबके दुख भावों को पढ़ लेती है
जो हाथ सदा ही विजित रहे युग-युग योद्धाओं के रण में,
वह हाथ विजित तो हैं अब भी लेकिन जीवन के प्रांगण में
वह माता है पत्नी भी है अनुजा है और सुता भी है
है कभी पुत्र तो विपदा में है भाई और पिता भी है
है एक और अबला लेकिन है एक ओर गुरु प्रथम वही
है वह तो हम भी हैं जग में, न है वह तो हम कहीं नहीं !