कविकर्म का मूल्य
कविकर्म का मूल्य
"जब घायल दिल को पहलू से, तनहाई ठुकराती है !
तब उसकी आहों को दुनिया, गीत समझकर गाती है !
तुलसी बनने को निज सुख भी, भेंट चढ़ाना पड़ता है !
मीरा को त्यक्ता होने का, भार उठाना पड़ता है !
महाप्राण बनने की खातिर, खोना पड़ता बेटी को
जयशंकर को बिना दवा के, प्राण लुटाना पड़ता है !
यही फलन है उस दुनिया का, जहाँ प्यार व्यापार नहीं
मनुजमूल्य की धारा छल से जब आहत हो जाती है !
जब घायल दिल को पहलू से !
पीड़ाओं का सार समेटे, दुविधाओं के बोझ तले !
काट रहे हैं नित्य अमावस, दीप बने जो स्वयं जले !
दंश झेल, दो भरे नयन
से, पृष्ठ उकेरे मानस के
और मिला उपमान सूर्य का, जब दिनभर जल मरे ढले !
मृषा स्वरों पर दौड़ पड़े जो, मूक कहाँ वह समझेंगे
जब मन की हर मूक विवशता चिल्लाकर थक जाती है !
जब घायल दिल को पहलू से !
वह मानस जो इस समाज का, दर्पण समझा जाता है !
वह मानस जो भटके जग को, सही राह दिखलाता है !
वह मानस जो परता में भी, निजता का हल खोज रहा
स्वयं रो रहा किन्तु हर्ष का, बीजवपन कर आता है !
किन्तु कहो क्यों ? यक्ष प्रश्न है, कल था, है और होगा भी
होती पूजित शिला वही क्यों, जब वह ठोकर खाती है !
जब घायल दिल को पहलू से..।