सिलसिला
सिलसिला
एक बार पुकार लो
मेरा नाम लेकर
शहर भर के शोर शराबे में
सायद अनसुनी सी रह जाती हूं
बार बार ये एहसास होता है
अचानक मिल जाओगे किसी चौराहे पर
शायद मिलने की कोशिश भी की होगी
पर गुम हूं अपनी बसाई दुनिया में
अंजाने में सही महसूस होता है
अभी अभी तुम से रुबरु हूई
हल्का सा एक हावा का झोंका
छू कर निकल जाता है
हर इक पगडंडी पर
ढूंढती फिरूँ में पैरों के निशान
ना चाहते हुए उलझ ही जाता हूं
अपनी ही सरहद की गलियों में
बेबस मैं हूं तुम नहीं
फिर क्यों छुपाते हो अपना परिचय
भली भाती वाकिफ हो
नाकामियाब रहूंगी हर इंतेहान में
पहचान की कोई तो सुराग़ दो
बर्ना क्या रखा है ऐसे छुपमछुपाई में
कौन सा भेष तुम्हारा
जोगी हो या राजा
लगने लगा है मिलोगे तब
जब मैं ! मैं ना रहूं और तुम ! तुम ना रहो
पूरी संसार मुझमें समां जाये या मैं सारे संसार में
तब ये सिलसिला खत्म होगा शायद ।।।