तलब
तलब
तू उस्ताद मोहब्बत लुटाने में
मैं नाकाम रहा बटोरने में
हमेशा मेरे आँचल कम पड़े
तू था वहां वहां
जहां जहां मेरे नज़र पड़े
मैं बदनसीब कभी तुझे छू ना पाया
तेरे पास वक्त ही वक्त था मेरे लिए
मैं कमबख्त उलझा रहा
रिश्तों कि कड़ियों को जोड़ने में
तू चाहत का सैलाब
में कागज कि कश्ती में सवार
ढह जाना मेरा लाज़मी था
खूब तराशा खुद को
ताकि बनूं में तेरे काबिल
फिर भी ना तुझे पा सका
कुछ ऐसा कर !!
तू मेरी तलब बन जाये
और तू ही तू वजूद मेरा......।