तुम रिश्तों को बाहर भीतर , जोड़-तोड़ करते अपने स्वार्थ वश मुनाफे की तहत, तुम रिश्तों को बाहर भीतर , जोड़-तोड़ करते अपने स्वार्थ वश मुनाफे की तहत,
पैसों से मौज़ हो सकती है समझ की सोच नहीं हो सकती पैसों से मौज़ हो सकती है समझ की सोच नहीं हो सकती
रिश्तों के जाल में बंधती मैं मैं मैं सिर्फ मैं रिश्तों के जाल में बंधती मैं मैं मैं सिर्फ मैं
लोक व्यवहार न जाने कहां खो गया? नेग अब झूठा रिवाज हो गया लोक व्यवहार न जाने कहां खो गया? नेग अब झूठा रिवाज हो गया
अपनी हर बात सही लगी अपनी हर बात सही लगी
माना कि मैं एक बहू, पत्नी, माँ हूँ मगर उससे पहले में आज़ाद ख्यालों की इंसान हूँ माना कि मैं एक बहू, पत्नी, माँ हूँ मगर उससे पहले में आज़ाद ख्यालों की इंसान ...