अनकही
अनकही
अब तो डर लगने लगा है
कब वक्त बेवक्त मौत दस्तक दे जाए
मैं फिर से गुज़रे लम्हों को
छू लेना चाहती हूँ
ओस के मोतियों को
ख्वाहिशों के आंचल में सजा के रख लूं
समय के साथ साथ
ना जाने कितने छूट गये
आह तो निकलती है उनके लिए
जो इस दुनिया से रुखसत हो गये
कभी ना मिल पाने कि ग़म
क्या जाने कब हम भी हो जाए गुम
अब तो सूनी सी है आंगन
मिलो तक तन्हाई
पंछी भी कतराने लगे आने से
क्या फर्क पड़ता है पतझड़ हो या हरियाली
अपनी सांसों के सिवाए
कोई आहट भी नहीं
कभी कभार में ही
दस्तक देती रहती हूँ यादों के झरोखों पे
तितली बन फिर ने वाली
सिमट के रह गई हूँ आपने आप में
ढलती उम्र के साथ
सन्नाटे को बना ली अपनी दोस्त
ज़िन्दगी बसने लगी पन्नों पे
बस उंगलियां सहलाते कुछ रंगों को
हालतों से जुझते जुझते
हर कोई क़ैद है अपने ही दायरे में
झुर्रियों के दीवार तोड़ के
बचपन को टटोलना चाहते हैं आसमान में
अनकही बाकी जो रह गये
पढ़ लो इन सूनी आंखों से।