लाज़िमी
लाज़िमी
फिज़ा में आज खुशबू वही
फिर से वही आरज़ू जगी
जिसकी जुस्तजू भी ना थी
ज़िन्दगी से कोई शिक़ायत ना थी
ना शिकवा कोई
गजब की एक सुकून थी
साज़िश थी मुकद्दर का
या रज़ा रज़्ज़ाक़ का
या थी बंदगी में खामियां
समय का करवट बदलना लाज़िमी था
ठेहराव से उसे ऐतराज़ था
लहर को किनारे पे टकराना था
मेरी ज़िद्द भी कम ना थी
उस गली से रुख़ मोड़ ली
जब तु ही तु तकमील मेरी
रूखसत जब हूं इस दुनिया से
तेरे ही महक हो रूह में
ताकी तक़लीफ ना हो तक़लीद में।
