काफ़िर
काफ़िर
लोग कहते हैं
मैं काफ़िर हूं
इबादत तो दूर की बात
झुकता नहीं सजदे में उसके
वाकई में सच तो है
ये सारे इल्ज़ामात
कैसे कहूं कैसे समझाऊं
एतबार इबादत का दुसरा नाम
कोई ख़लिश तो नहीं
उस से निगाहें मिलाने में
मैंने उस के मोहब्बत की तपिश को
दिल में उतारा है
क्या फर्क पड़ता है
मैं उसके दर पे जाऊं या ना जाऊं
हर जिल्लत हर मुस्कुराहट के पीछे
उसी का तो हाथ है
देखा है मैंने एक बूँद आंसू पे
उसके सीना छलनी होते हुए
वो अक्स है मेरा
किसी अंधेरा या उजाला के मोहताज नहीं
जो रुह में समाया
चार दीवारी में कैद क्यों करूँ मैं ??
अपनी वजूद गंवा के
कहीं जा के सेहरा में गुल खिलाया है
बहुत मुश्किल है उसे ढूंढ पाना
उस से भी मुश्किल है रिश्ता बनाये रखना
सिर्फ इंसानियत की पुजारी है व
मुझे तपती रेत में चलना सिखाया
उसी का ही मेहरबानी
ये आग का दरिया पार किया
उसे यहां वहां मत ढूंढो
क्या पता इंतजार कर रहा है तुम्हारे चौखट पे.....